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उत्तराखंड : मैदान के 4 जिलों पर पहाड़ के 9 जिलों का भार, खिसक जाएगी पहाड़ की राजनितिक जमीन!

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posted on : अप्रैल 16, 2025 3:34 अपराह्न

देहरादून: दक्षिण भारत के पांच राज्यों के मुख्यमंत्रियों द्वारा परिसीमन को लेकर एकजुटता दिखाने के बाद उत्तराखंड में भी इस मुद्दे पर चर्चा तेज हो रही है। हालांकि, परिसीमन आयोग का गठन अभी नहीं हुआ है और इसके लिए पहले जनगणना होनी बाकी है, जिसके बाद ही इस प्रक्रिया में गति आएगी। लेकिन दक्षिण भारत की चिंताओं से अलग, हिमालयी राज्य उत्तराखंड के अपने अनूठे सरोकार हैं, जो इस बहस को और जटिल बनाते हैं। पर्वतीय राज्य की मूल अवधारणा को बनाए रखने के लिए जनसंख्या के साथ-साथ क्षेत्रफल आधारित परिसीमन की मांग जोर पकड़ रही है, जिसे राजनीतिक और सामाजिक हलकों में गंभीरता से देखा जा रहा है।

पहाड़ों से पलायन, मैदानों में भीड़

उत्तराखंड की स्थापना पहाड़ी राज्य की अवधारणा पर हुई थी, लेकिन बीते दो दशकों में जनसंख्या का असंतुलन इस अवधारणा के लिए सबसे बड़ा खतरा बनकर उभरा है। नौ पर्वतीय जिलों (अल्मोड़ा, बागेश्वर, चमोली, चंपावत, पिथौरागढ़, रुद्रप्रयाग, टिहरी गढ़वाल, उत्तरकाशी और पौड़ी गढ़वाल) से लोग तेजी से पलायन कर रहे हैं, जबकि चार मैदानी जिले (देहरादून, हरिद्वार, नैनीताल और ऊधमसिंह नगर) जनसंख्या विस्फोट का सामना कर रहे हैं।

चुनाव आयोग के आंकड़े

चुनाव आयोग के आंकड़े इस तथ्य की पुष्टि करते हैं। 2002 में हुए पहले विधानसभा चुनाव में मैदानी जिलों में मतदाताओं की संख्या 52.7% थी, जबकि पर्वतीय जिलों में 47.3%। उस समय दोनों क्षेत्रों के बीच मतदाताओं का अंतर महज 5.4% था। लेकिन 2022 तक यह खाई चौड़ी होकर 21.2% हो गई। मैदानी जिलों में मतदाता 60.6% हो गए, जबकि पहाड़ी जिलों का हिस्सा घटकर 39.4% रह गया। पिछले एक दशक (2012-2022) में मैदानी जिलों में मतदाताओं की वृद्धि दर 72% रही, जबकि पहाड़ी जिलों में यह मात्र 21% थी।

5 लाख से अधिक लोग पलायन कर चुके

2018 की पलायन आयोग की रिपोर्ट के अनुसार, उत्तराखंड से 5 लाख से अधिक लोग पलायन कर चुके हैं, जिनमें से 3 लाख से ज्यादा अस्थायी रूप से रोजगार और बुनियादी सुविधाओं की कमी के कारण अपने गांव छोड़ गए। यह पलायन न केवल सामाजिक-आर्थिक संकट है, बल्कि राजनीतिक प्रतिनिधित्व के लिए भी चुनौती बन रहा है।

राजनीतिक परिदृश्य और परिसीमन की चुनौती

परिसीमन का मुद्दा उत्तराखंड में इसलिए जटिल है क्योंकि यह केवल जनसंख्या पर आधारित नहीं हो सकता। यदि परिसीमन केवल जनसंख्या के आधार पर हुआ तो मैदानी जिले, जहां आबादी तेजी से बढ़ रही है, विधानसभा सीटों में बड़ा हिस्सा हासिल कर लेंगे। इससे पर्वतीय जिलों का प्रतिनिधित्व और कम हो जाएगा, जो पहाड़ी राज्य की मूल अवधारणा के खिलाफ है। सामाजिक कार्यकर्ता और विश्लेषक अनूप नौटियाल का कहना है, “पहाड़ और मैदान के बीच जनसंख्या की खाई इतनी बढ़ गई है कि रिवर्स पलायन जैसे उपाय ऊंट के मुंह में जीरे के समान हैं। क्षेत्रफल आधारित परिसीमन ही पर्वतीय राज्य की अवधारणा को बचाने का एकमात्र रास्ता दिखता है।”

राजनीतिक दृष्टिकोण से भी यह मुद्दा संवेदनशील

राजनीतिक दृष्टिकोण से भी यह मुद्दा संवेदनशील है। पर्वतीय क्षेत्रों में सत्तारूढ़ और विपक्षी दल, दोनों ही पलायन और विकास के मुद्दे पर सक्रिय हैं, लेकिन ठोस परिणाम सीमित हैं। गढ़वाल सांसद अनिल बलूनी के ‘मेरा वोट-मेरा गांव’ अभियान ने लोगों को अपने गांव में मतदाता के रूप में पंजीकरण के लिए प्रेरित किया है, लेकिन विशेषज्ञों का मानना है कि यह अभियान जनसंख्या के अंतर को पाटने के लिए पर्याप्त नहीं है। बलूनी का कहना है, “परिसीमन अभी दूर है। पहले जनगणना होगी। लेकिन पहाड़ में मतदाताओं की संख्या बढ़ाने के लिए विकास, आजीविका और लोगों को उनकी जड़ों से जोड़ने के अभियान जरूरी हैं।”

पहाड़ की चिंताएं और विकास की उम्मीद

उत्तराखंड के पर्वतीय क्षेत्रों की सबसे बड़ी चिंता है पलायन और बुनियादी सुविधाओं का अभाव। शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार और कनेक्टिविटी की कमी के कारण युवा मैदानी क्षेत्रों या अन्य राज्यों की ओर रुख कर रहे हैं। पर्यावरणविद और पद्मभूषण अनिल जोशी कहते हैं, “यह समस्या सिर्फ उत्तराखंड की नहीं, पूरे देश के ग्रामीण क्षेत्रों की है। पर्वतीय राज्य की अवधारणा को बचाने के लिए सरकारों को पहाड़ों में विकास और आजीविका के साधनों पर गंभीरता से काम करना होगा।”

जनसंख्या का असंतुलन और गहरा सकता है

प्रदेश सरकार ने चारधाम ऑलवेदर रोड, ऋषिकेश-कर्णप्रयाग रेल परियोजना, हवाई कनेक्टिविटी के विस्तार, सोलर परियोजनाओं, होम स्टे और उद्यानिकी जैसी योजनाओं के जरिए रिवर्स पलायन की कोशिशें शुरू की हैं। इनसे पर्वतीय क्षेत्रों में आर्थिक गतिविधियों को बढ़ावा मिलने की उम्मीद है। लेकिन इन योजनाओं का असर दिखने में समय लगेगा, और तब तक जनसंख्या का असंतुलन और गहरा सकता है।

क्षेत्रफल आधारित परिसीमन: एकमात्र समाधान?

पर्वतीय जिलों की भौगोलिक और सांस्कृतिक विशिष्टता को देखते हुए क्षेत्रफल आधारित परिसीमन की मांग तेज हो रही है। पहाड़ी जिले भौगोलिक रूप से बड़े हैं, लेकिन जनसंख्या कम होने के कारण उनका राजनीतिक प्रतिनिधित्व कमजोर हो रहा है। यदि परिसीमन में क्षेत्रफल को भी आधार बनाया जाए तो पर्वतीय जिलों को अधिक सीटें मिल सकती हैं, जिससे उनकी आवाज विधानसभा में मजबूत होगी। हालांकि, यह प्रस्ताव अपने आप में विवादों से खाली नहीं है। मैदानी जिलों में बढ़ती आबादी और वहां के मतदाताओं की अपेक्षाएं भी परिसीमन को प्रभावित करेंगी। ऐसे में सरकार और परिसीमन आयोग के सामने संतुलन बनाना एक बड़ी चुनौती होगी।

भावनात्मक और राजनीतिक भी है परिसीमन का मुद्दा

उत्तराखंड में परिसीमन का मुद्दा केवल तकनीकी या प्रशासनिक नहीं, बल्कि भावनात्मक और राजनीतिक भी है। यह पहाड़ी राज्य की मूल पहचान को बचाने की लड़ाई है। पलायन रोकने और रिवर्स पलायन को बढ़ावा देने के लिए सरकार को ठोस नीतियां लागू करनी होंगी। साथ ही, परिसीमन की प्रक्रिया में क्षेत्रफल और जनसंख्या के बीच संतुलन बनाना होगा, ताकि पहाड़ और मैदान, दोनों की आवाज को बराबर सम्मान मिले। इस दिशा में राजनीतिज्ञों, सामाजिक कार्यकर्ताओं और नीति निर्माताओं को मिलकर एक दीर्घकालिक रणनीति तैयार करनी होगी, वरना उत्तराखंड की पर्वतीय आत्मा खतरे में पड़ सकती है।

source-अमर उजाला

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