देहरादून : राजऋषि में राजा और ऋषि दोनो के गुण मिलते है। राजा भोग करने वाला और ऋषि त्याग करने वाला गुण रखता है। राजऋषि के पद में भोग और त्याग दोनो का संतुलन रहता है। अर्थात भोग में त्याग अथवा त्याग में भोग की संकल्पना अतिवाद का खण्डन करते हुए मध्यम मार्ग का समर्थन करती है।
हमें सदैव अपने को राजऋषि बनने का लक्ष्य रखना है। एक तरफ राज्य लेने का लक्ष्य है, दूसरी तरफ ऋषि बनने का लक्ष्य है। दोनों के लक्ष्य तो एक है लेकिन लक्षण अलग अलग है। एक भाग्य का प्रतीक है और दूसरा त्याग का प्रतीक है। एक सर्व अधिकारी है तो दूसरा बेहद का वैरागी है। लेकिन दोनो की अपने लक्षण, बोल और कर्म में सदा एक साथ पाये जाते है।
राजऋषि स्व पर राज्य करने वाला होता है। अर्थात इनका अपने कर्मेन्द्रियों पर और अपने उपर पूरा कन्ट्रोल रहता है। राजऋषि बनने के लिए ऐसे निश्चिय बुद्धि बनना होगा कि हमें वैराग्य तो होगा लेकिन प्राप्ति, भाग्य को प्राप्त करने की खुशी भी होगी। इसलिए जितना राज्य का नशा होगा उतना वैराग्य का अनुभव होगा
इनके भीतर त्याग के साथ साथ भाग्य भी स्पष्ट दिखता है। इनका नशा और निशाना स्पष्ट रहता है। इनका निशाना है सम्पूर्ण स्टेज को प्राप्त करना है और इसी नशे में रह कर अपने निशाना के समीप रहने का अनुभव उसी प्रकार करते है जैसे स्थूल नेत्रों के समाने कोई वस्तु स्पष्ट दिखाई देती है। दिखाई देने वाली वस्तु में कोई संदेह नही रहता है।
इसलिए इनके मन में यह संकल्प भी नही उठता है कि यह वस्तु है अथवा नही है, क्या है वह कैसी है। इनके मन में सम्पूर्ण स्टेज के समीप होने के कारण तनिक भी शंका नही होती है कि मै बनूगा अथवा नही बनूगाॅ। सम्पूर्ण स्टेज वह अवस्था है जहाॅ हर तरह के क्वेश्चन समाप्त हो जाता है। जहाॅ सभी प्रकार के क्वेश्चन समाप्त होने पर हमारे लक्ष्य का निशाना स्पष्ट दिखने लगता है।
राजऋषि पद वाला व्यक्ति दुनिया के किसी प्रकार के वैभव से प्रभावित नही रहता है। सभी व्यक्तियों को कल्याण की दृष्टि से देखता है और हर परिस्थिति तथा परीक्षा में स्वयं को विजयी अनुभव महसूस करता है। इसके अनुसार सफलता मेरा जन्म सिद्ध अधिकार है। यह अधिकार समझ कर वह हर कर्म करता है। ऐसा व्यक्ति यह अनुभव करता है कि हमारा हर कार्य और हर संकल्प सिद्ध हुआ पडा है।
राजऋषि पद वाला व्यक्ति साझीपन की सीट पर स्वयं को सदैव सैट रखता है। इनका कहना और करना, सोचना और बोलना तथा सुनना और स्वरूप बनना एक समान रहता है। इसके कारण ये एक सेकेण्ड में अपने को जहाॅ चाहे स्थित कर लेते है और हर परिस्थिति का सामना करने के लिए एवरेडी बने रहते है।
अव्यक्त बापदादा महावाक्य मुरली 07 अक्टूबर 1975
लेखक : मनोज श्रीवास्तव, सहायक निदेशक सूचना एवं लोकसम्पर्क विभाग उत्तराखंड
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