देहरादून : धर्म सत्ता में जल्दी अहंकार दिख जाता है। इसलिये इनकी स्वाभिमान गायब मिलती है। नाम है धर्म, लेकिन कर्म है, अतिकुकर्म। कुकर्म अर्थात विकर्म का कीड़ा, उन्हों की धर्म सत्ता अर्थात शक्ति को खत्म कर रही है। आज अनेक प्रकार के उल्टे नशों में चूर, धर्म के होश से बेहोश हैं, अर्थात आज धर्म सत्ता का बाहरी रूप आडम्बर स्वरूप में दिखती है। त्याग, तपस्या और वैराग्य के बदले लोग सिद्धियों का खेल खेल रहे हैं, वैराग्य के बजाय राग-द्वेष देखने को मिल रहा है। लोग सिद्धियों का जुआं खेल रहे हैं, बड़े-बड़े दांव लगा रहे हैं। यह प्राप्त करा दूंगा, तो इतना देना होगा अथवा बीमारी को मिटायेंगे, तो इतना दान-पुण्य करना होगा।
इसी प्रकार भक्त की सत्ता अन्ध श्रद्धा की पट्टियां आंखों पर रखकर अपने मंजिल को ढूंढ रहे हैं। जो आंखों पर पट्टी बांधे हुये हैं, उन्हें स्वयं रास्ता पता नहीं है, तो दूसरों को कैसे रास्त दिखायेंगे। ऐसे लोग जहां से आवाज आयेगी, वहीं चल पड़ेंगे। अन्दर घबराहट होगी, क्योंकि उनकी आंखों पर पट्टी है। इसलिये भक्त होते हुये भी अन्दर से दुःख-अशान्ति के कारण घबरा रहे हैं, जहां कोई आवाज सुनते हैं कि फलाना व्यक्ति बहुत जल्दी प्राप्ति कराता है, उस आवाज के पीछे अन्ध श्रद्धा से भाग रहे हैं। फिर भी उन्हें कोई ठिकाना नहीं मिलता है। दूसरी तरफ यदि कोई सही रास्ता बताये तो कोई सुनने को तैयार नहीं। भक्त की सत्ता अति स्नेह की है, लेकिन अति स्नेह स्वार्थ में बदल गया है। चारा तरफ स्वार्थ का बोलबाला है। सबसे स्वार्थ में भिखारी दिखाई दे रहे हैं, शान्ति दो, सुख दो, सम्पत्ति में वृद्धि हो, यह दो, वह दो, ऐसे भीख मांगने वाले भिखारी बने हैं।
प्रजा की सत्ता का स्वरूप भी चिन्ताजनक है। सभी चिन्ता की चिता पर बैठे हुये हैं। खा भी रहे हैं, चल भी रहे हैं और कोई कार्य भी कर रहे हैं, तो सदैव यह भय का संकल्प बना रहता है कि अभी तीली जली और आग लगी। संकल्प में और स्वप्न में सदैव यही चलता रहता है। अभी पकड़े गये, तभी पकड़े गये। कभी राज सत्ता द्वारा, कभी प्रकृति की आपदाओं द्वारा, कभी लुटेरों द्वारा नुकसान होने का संकल्प स्वप्न में देखते रहते हैं, ऐसी चिन्ताओं की चिता पर सवार रहते हैं और परेशान,दुःखी व अशान्त होकर रास्ता खोजते रहते हैं, लेकिन कोई रास्ता नजर नहीं आता है, जहां से अपने को बचाया जा सके। वहां जाये ंतो आग है, दूसरी तरफ जाये तो पानी है, ऐसे चारों ओर के टेंशन के वातारण में घबराये हुये नजर आते हैं।
राज सत्ता बिल्कुल अन्दर से शक्तिहीन, खोखली दिखाई देने लगी है। अन्दर खाली और बाहर से दिखावटी रूप रह गया है। जैसे दीमक लग जाने पर अन्दर से खोखला हो जाता है, सिर्फ बाहर का रूप दिखाई देता है, ऐसे ही राज्य सत्ता हो चुकी हैं। नाम है राज्य लेकिन अन्दर दिन-रात, एक-दूसरे में खींचातान अर्थात ईष्र्या की अग्नि जल रही है। राज्य से सुखों की प्राप्ति नहीं है, बल्कि एक मिनट का चैन भी नहीं है। इसलिये नींद का भी चैन नहीं है। दिन की सारी थकावट और संकल्पों को आराम देने का साधन नींद गायब है। इसे कहते हैं भाग्यहीन राज्य। भाग्यहीन सत्ताहीन राज्य बनकर सदा भय के भूतों के बीच कुर्सी पर बैठा हुआ दिखता है।
अव्यक्त बाप-दादा-मुरली महावाक्य-19 अक्टूबर, 1975
लेखक : मनोज श्रीवास्तव, सहायक निदेशक सूचना एवं लोकसम्पर्क विभाग उत्तराखंड
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