निरन्तर में अंतर न आना, निश्चय बुद्धि के चेकिंग के आधार है
देहरादून : निश्चय बुद्धि का अर्थ है किसी कार्य सौ प्रतिशत निश्चय रखना। सौ प्रतिशत निश्चय वाला व्यक्ति स्वयं को विजयी मान कर निश्चिन्त रहता है। केवल कार्य मे निश्चय रखने को पूर्ण निश्चयबुद्धि नही कह सकते है। कार्य मे निश्चय बुद्धि के साथ- साथ अपने आप मे भी निश्चय होना जरूरी है। जो व्यक्ति सौ प्रतिशत निश्चय बुद्धि वाला होगा उसमे संशय बुद्धि नही होगी।
ऐसे व्यक्ति को सदा ही यह निश्चय रहता है कि यह तो कार्य हुआ पड़ा है। ऐसे निश्चय बुद्धि वाला व्यक्ति सदैव अपनी बिजय और सफलता निश्चित समझ कर आगे बढ़ता रहता है। यह कार्य तो निश्चित ही होना है,यह समझ कर आगे बढ़ने वालों के चेहरे पर किसी भी प्रकार के चिंता की रेखा नही दिखती है।
निश्चय बुद्धि वाले व्यक्ति कब,क्यो के क्वेश्चन में नही फसता है। क्यो ,कैसे प्रश्नों में चंलने वाले निश्चय बुद्धि नही बन सकते है। क्योंकि एक क्यों आने से क्यों कि क्यू लग जाती है। क्यू में इंतजार करना पड़ता है जबकि अब इंतजार की घड़ियां खत्म हो गई है।
अपने को उत्साह में लाने के उत्सव का इंतजार नही करना चाहिये। चूंकि यह उत्साह अल्पकाल के लिये होता है इसलिये हमे सदा काल का उत्सव मनाना चाहिए। अतीन्द्रिय खुशी से जो उत्सव का माहौल बनता है ,वह निरन्तर बना रहता है अर्थात निरन्तर उत्सव में कोई अंतर नही पड़ता है। इसके कारण हम अतीन्द्रिय सुख और अविनाशी खुशी में झूमते और झूलते रहते है।
हमारे जीवन मे निरंतर उत्सव बने रहते से हमारे उत्साह में कमी का अनुभव नही होता है। निरन्तर में अंतर न होना यही हमारे चेकिंग के आधार है। हमारी स्मृति ही समर्थी को लाती है और समर्थी आने पर हर कार्य सफल होने लगता है। इससे खुशी, मस्ती, नशा और निशाना सभी कुछ मिल जाता है।
जब कभी यह सभी बातें गायब हो जाता है तब उसका मुख्य कारण हमारी निर्बलता है। निर्बलता के कारण विस्मृति आ जाती है, विस्मर्थी से हमारे भीतर असमर्थी आ जाती है। लेकिन स्मृति आ जाने पर सभी कार्य पुनः सिद्ध होने लगता है। स्व स्मृति में रहने वाला व्यक्ति जो कार्य करेगा,जो संकल्प करेगा वह सदैव सिद्ध होगा।
अलौकिक जीवन हमारे निश्चय बुद्धि में सहायक बनती है। अलौकिक जीवन के कारण इस जीवन के विघ्न हमारे लिये एक खेल के समान होता है। हमे विघ्न रूपी खिलोने से खेलने की जरूरत होती है ,न कि खेल में हारने की जरूरत होती है। जब जीवन मे आने वाले विघ्नों को अलौकिक खेल समझ कर खेलेंगे तब डरेंगे नही, घबराएंगे नही और न ही परेशान होंगे। आर्थात हम किसी भी परिस्थिति में न तो डगमग होने और न ही परेशान होंगे।
अव्यक्त महावाक्य बाप दादा मुरली 27 फरवरी 1972
लेखक : मनोज श्रीवास्तव, सहायक निदेशक सूचना एवं लोकसम्पर्क विभाग उत्तराखण्ड
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