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समय हमको समीप लायेगा अथवा हम समय के समीप जायेंगे

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posted on : अगस्त 24, 2020 5:12 अपराह्न

देहरादून : परीक्षा का समय नजदीक आ रहा है इसलिए सम्पूर्ण तैयारी रखनी है। सम्पूर्ण तैयारी को प्रैक्टिकल रूप देने से सफलता बिल्कुल समीप और स्पष्ट अनुभव होगा। तैयारी के दौरान वर्तमान स्टेज और सम्पूर्ण स्टेज में स्पष्ट अन्तर ज्ञात रहना चाहिए। हम कितनी भी तैयारी कर चुके हैं, लेकिन चेक करें कि क्या इसके प्रैक्टिकल का अनुभव हुआ है। जब हम सम्पूर्ण स्टेज को प्रैक्टिकल रूप में लायेंगे तभी सफलता हमारी समीप होगी।

समय हमको समीप लायेगा अथवा हम समय के समीप जायेंगे। उस तरफ से समीप आयेगा और इस तरफ से हम समय के समीप जायेंगे। दोनों का मेल होना निश्चित है। लेकिन ध्यान रखना है कि समय कभी भी हमारे समीप आये लेकिन हमें समय के समीप अवश्य जाना है। हम समय का इंतजार न करें बल्कि समय हमारा इंतजार करे। हमें समय के आगे चलना है।

मनोज श्रीवास्तव

समय के आगे चलने के लिए हमें एवरेडी रहना होगा। हम किसी का इंतजार नहीं करेंगे बल्कि अपना सभी इंतजाम करके रखेंगे। लोग कहते हैं कि सम्पूर्ण स्टेज पर पहुचने में भी चार वर्ष लगेगा, लेकिन चार वर्ष का समय नहीं इंतजार नहीं करके चार सेकेण्ड का स्कीम और प्लान बनाना है। धीरे-धीरे अनुभव होगा कि मुश्किल बात सरल होती जा रही है, संकल्प सिद्ध होते जा रहे हैं।

निर्भयता और संकल्पों में दृढ़ता, यही सम्पूर्ण स्टेज के समीपता की निशानी है। अब यह दोनों प्रत्यक्ष रूप से दिखने लगते हैं। संकल्प के साथ-साथ रिजल्ट स्पष्ट दिखने लगता है और इसके साथ ही फल की प्राप्ति भी होती रहती है। यह संकल्प का रिजल्ट है और यह कर्म का फल है। इसे अनुभव का प्रत्यक्ष फल मिलना कहते हैं।

प्रप्तियों का रिजल्ट प्राप्त करने के लिए कमजोरियों विनाश करते चलना है। पुराने संस्कार खत्म करना है और नये संस्कार पैदा करना है। जिसमें अपने को मोल्ड करने की शक्ति नहीं है वह रीयल गोल्ड नहीं बन सकता है। जिस प्रकार स्थूल अंगों को जब चाहें, जहां चाहें यदि नहीं मोड़ सकते हैं तब यह कमजोरी या बीमारी कहलाती है। इस प्रकार अपने बुद्धि को अपने अनुसार मोड़ लेना है, ऐसा नहीं कि बुद्धि हमें ही मोड़ ले।

किसी स्वभाव संस्कार देखकर मन को ऊपर नीचे नहीं करना है बल्कि किसी बुरे संस्कार स्वभाव वाले व्यक्ति को देखते हुए, बुद्धि योग उसकी तरफ न लगायें बल्कि उस व्यक्ति की तरफ शुभ भावना रखते हुए एक तरफ से सुना, दूसरी तरफ से खत्म किया।

अधिकारी बनने के लिए अधीनता को स्वीकार करना होगा। नवीनता और विशेषता देखने और दिखाने का लक्ष्य रखकर यह निश्चय करना है कि कोई भी विघ्न आ जाये हमें निर्विघ्न बनकर अन्य का मददगार बनना है। ऐसी प्रतिज्ञा से छोटी-छोटी बातों में मेहनत नहीं करनी पडे़गी। हम किसी भी माया के आकर्षण से बच जायेंगे और दुनियां के आकर्षण में फंसकर धोखा नहीं खायेंगे। जो स्वयं धोखा खाता रहता है, वह दूसरों को धोखा खाने से कैसे बचा सकता है।

यदि अधिकारी समझकर कर्म करेंगे तब कहने और मांगने का संकल्प में भी इच्छा भी नहीं होगी। अधिकार प्राप्त नहीं होने के कारण, कहीं न कहीं अधीनता अवश्य होती है। अधीनता होने के कारण, हम अधिकार नहीं प्राप्त करते हैं। पुराने संस्कार और गुणों की धारणा के कमी के कारण हम निर्बलता और कमजोरी के अधीन हो जाते हैं। इस प्रकार हमें अधिकारीपन का अनुभव नहीं होता है। इसलिए सदैव यह समझें कि हम अधीन नहीं बल्कि अधिकारी हैं।

हम अपने ऊपर विजय प्राप्त करने के अधिकारी हैं। यदि अधिकारीपन का अनुभव होगा तब सर्व शक्तियों के प्राप्ति का भी अनुभव होगा। अधिकारीपन भूलकर हम दूसरों के अधीन हो जाते हैं और सदैव मांगते रहते हैं। अधिकारी बनने के लिए बुद्धि में सदैव श्रेष्ठ संकल्प रखना चाहिए। यदि संकल्प श्रेष्ठ है तब वचन और कर्म में स्वतः ही श्रेष्ठता आ जायेगी। इसलिए सदैव श्रेष्ठ के, संग के रंग में रहें। ऐसा करने से हमारा सोचना और बोलना एक समान हो जायेगा।

यदि कॉमन या साधारण संकल्प होगा तब हमारी प्राप्ति भी साधारण और कॉमन होगा। जैसा संकल्प होगा वैसी सृष्टि बनेगी। हम विशेष हैं इसलिए हमारा सब कुछ विशेष होना चाहिए। अभी तक हम साधारण जीवन अच्छा लग रहा था, इसलिए अब हमें अपने जीवन में परिवर्तन लाना होगा। ऐसा करने से हमारी स्मृति, वृत्ति और दृष्टि अलौकिक हो जायेगी। इससे दुनियां के कोई भी चीज हमें आकर्षित नहीं कर सकती है। यदि हम दुनियां के आकर्षण में फंसते हैं तब इसका अर्थ है, हमारी स्मृति, वृत्ति और दृष्टि में कुछ कमी अवश्य है।

हमें इतनी हिम्मत रखनी होगी कि जितना समय हमें सोचने में लगता है उतना ही समय करने में लगे। साहस रखने वाले को मदद भी मिलती है। इसलिए कभी साहस को नहीं छोड़ना चाहिए। हिम्मत और उल्लास सदैव रखने से हम हर्षित रहेंगे। आलस्य खत्म करने पर हम उल्लास में रहेंगे। जब कमाई व प्राप्तियों का समय होता है तब हम उल्लास में रहते हैं और आलस्य समाप्त हो जाता है।

यदि उल्लास नहीं है तब आलस्य जरूर है। यदि हम आलस्य करेंगे तब श्रेष्ठ कर्म से वंचित हो जायेंगे। आलस्य के कई रूप हैं जैसे – अच्छा सोचेंगे, यह कार्य फिर कर लेंगे, बाद में कर ही लेंगे, कार्य हो ही जायेगा। हमें आलस्य छोड़कर, ऐसा नहीं कहना है बल्कि करने में लग पड़ना है। प्रैक्टिकल में जो विघ्न आता है वह भी आलस्य के कारण आता है। आलस्य के अन्य रूप हैं अच्छा कल जरूर करेंगे, फलाने करेंगे तब करेंगे। आलस्य के संकल्प को छोड़कर जो करना है उसे अभी करना है और जितना करना है, उसे अभी करना है। बाकी करेंग, साचेंगे, इत्यादि गा, गा शब्द बचपना के निशाने हैं। छोटा बच्चा ग, ग कहता है।

यदि विघ्न न हो लेकिन लगन भी न हो, तब इसे भी आलस्य का रूप कहेंगे। कार्य में उल्लास और विशेष उमंग की कमी के कारण आलस्य, आलस्य पहले साधारण व्यक्ति बनाता है फिर सफलता से दूर करते-करते, हम धोखा खाने लगते हैं, हमारी निर्बलता और कमजोरी आ जाती है। इसके कारण अन्य कमियां भी प्रवेश करने लगते हैं। हम अकेले पड़ जाते हैं इसके कारण हमारे ऊपर किसी के वार करने का खतरा होता है।

अव्यक्त महावाक्य बाप दादा मुरली 28 फरवरी, 1972

लेखक : मनोज श्रीवास्तव, सहायक निदेशक सूचना एवं लोकसम्पर्क विभाग उत्तराखंड देहरादून

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