देहरादून : लक्ष्य और लक्षण सम्मान करने वाले सर्व प्रकार के उलझनों से निकल जाते है। लक्ष्य और लक्षण की समीपता सफलता का आधार है। लक्ष्य के अनुरूप लक्षण को प्रैक्टिकल में लाना है। लक्ष्य तो सभी उच्ॅाा रख लेते है लेकिन लक्षण धारण करने में कुछ कमियां रह जाती है। एक है जिन्हे सुन कर अच्छा लगता है, उन्हे महसूस भी होता है कि यह करना चाहिए लेकिन उन्हे सुनना तो आता है परन्तु करना नही आता।
दूसरे प्रकार के लोग वह है जो सोचते है, समझते भी है और करते भी है लेकिन शक्ति स्वरूप न होने के कारण दो नाॅव पर पैर रख देते है। अभी अभी तीव्र पुरूषार्थी होते है और अगले ही पल हिम्मत हीन होने के कारण ठीले पड जाते है। ऐसे लोग दुनिया के आकर्षण में किसी न किसी प्रकार से वशीभूत हो जाते है। इसलिए इनके लक्ष्य और लक्षण में अन्तर दिखाई पडने लगता है। इच्छा है लेकिन शक्ति न होने के कारण इच्छा तक नही पहुच पाते है।
तीसरे प्रकार के लोग सुनना, सोचना और करना तीनों समान करते हुए चलते है। ऐसे आत्माओं का लक्ष्य और लक्षण नियानब्बे प्रतिशत दिखाई पडता है। वर्तमान में अपने संकल्प और बोल को लक्ष्य की कसौटी पर चैक करना चाहिए कि अपने लक्ष्य के अनुरूप हमारे संकल्प और बोल है। संकल्प बोल और कर्म समान रखने पर नया जन्म होता है। जैसा जन्म होता है वैसा कर्म होता है। श्रेष्ठ जन्म के कर्म भी स्वत ही श्रेष्ठ होता है। श्रेष्ठ कर्म व श्रेष्ठ लक्ष्य हमारे श्रेष्ठ जन्म का बर्थ राईट, जन्म सिद्ध अधिकार बन जाता है।
यदि हमारा जन्म सिद्ध अधिकार,बर्थ राईट का नशा नेचुरल रूप में रहता है तब मेहनत करने की आवश्यकता नही होती है। यदि मेहनत करनी पडती है तब इसका अर्थ है सम्बन्ध और कनेक्शन में कोई न कोई कमी रह गई है। बर्थ राईट के नशे में रहने से लक्ष्य और लक्षण समान हो जाता है। श्रेष्ठ कर्म व श्रेष्ठ लक्ष्य का जन्म सिद्ध अधिकार वह युक्ति है जिससे मेहनत से मुक्ति मिल जाती है। स्वयं को जो हूँ, जैसा हॅू वैसा जानना और मानना ही हमारे तकदीर का आधार है। इस रूप में अपने तकदीर की तस्वीर को देखना है।
बर्थ राईट प्राप्त करने के बाद अब मेहनत करने का समय नही रह गया है। अब स्मृति स्वरूप बनने का समय है, जो जानना था वह जान लिया, जो पाना था सो पा लिया एैसा अनुभव करना है। अब छोटी छोटी उलझनों से धबराने का समय नही है बल्कि सर्व उलझी हुई आत्माओं को निकलने का समय है। यह अनुभव करते हुए सदैव उंमग और उल्लास में याद करते रहे वाह मेरा भाग्य और भाग्य विधाता। इस सूक्ष्म मन की आवाज को सुनते रहे और खुशी से नाचते रहें।
अव्यक्त बाप-दादा, महावाक्य मुरली 10 जनवरी 1977
लेखक : मनोज श्रीवास्तव, सहायक निदेशक सूचना एवं लोकसम्पर्क विभाग उत्तराखण्ड