- मनोज श्रीवास्तव
देहरादून : हमारी भूमिका शिक्षक के समान है, शिक्षक की स्थिति सेवक के समान होती है। अर्थात शिक्षक को बिना सेवा के और कोई बात आकर्षित न करें। दिन रात सेवाओं में लगा रहे, अगर फ्री रहेंगे तो और बातें स्वतः आएंगी। खाली घर में ही बिच्छू, टिंडन आते रहते हैं। बुद्धि या तो खाली होती है या पुराने संस्कारों वाली होती है। इसके बाद व्यर्थ संकल्प रूपी बिच्छू और टिंडन पैदा होने लगते हैं। टीचर अर्थात सदा बिजी, व्यस्त रहने वाला होता है, कभी फुर्सत में रहने वाला नही होता है। इसके कारण संकल्प, बोल और कर्म से भी फ्री रहने वाला नही होता है। टीचर अर्थात कभी हार, कभी जीत में आने वाला नही होता है बल्कि सदा विजयी रहता है।
नंबर वन का टीचर फ्लोलेस, बेदाग रहता है। इसे ही सदैव श्रेष्ठ नजरों से देखा जाता है। श्रेष्ठता के आगे कमजोरी स्वयं ही झुक जाती है। श्रेष्ठ बातें सुनने से कमजोरी स्पष्ट होने लगती है। इसलिए सदैव श्रेष्ठता का वर्णन करते रहें, जिससे कमजोरी स्वतः ही दिखाई दे।
विशेष बात यह ध्यान रखनी है कि कभी भी किसी में भी राॅयल रूप में भी झुकाव और लगाव न हो। किसी भी आत्मा के गुणों की तरफ, सहयोग की तरफ, बुद्धि की तरफ, प्लानिंग की तरफ झुकाव न हो। किसी चीज को अपना आधार बनाना ही झुकाव कहलाता है। जब किसी आत्मा का आधार बन जाता है, तो परमात्मा का आधार स्वतः निकल जाता है। इससे आगे चलकर हमारा आधार हिल जाता है और हम भटक जाते हैं। किसी विशेष प्रभाव के कारण प्रभावित होना महान भूल कहलाता हैं। किसी व्यक्ति को आधार बनाने से जब वह फाउंडेशन हिलता है तो हम भी हिल जाते हैं।
इसलिए सदा सेवा में बिजी रहें, किसी आत्मा में बिजी न रहें। जो बिजी होता है वह कभी झुकेगा नही। फ्री होने के बाद ही मनोरंजन के साधन और सहयोग की तरफ झुकाव होता है। जो बिजी रहेगा, उन्हें इन बातों से फुर्सत नही मिलेगी। अमृत बेले में उठकर अपने को दर्पण में स्पष्ट देखना है कि हम राजी-खुशी हैं अथवा नही। यदि खुश रहेंगे तो सेवा में वृद्धि करते रहेंगे। इसलिए हर सैकेंड, हर संकल्प अपनी तकदीर बनाएं। यदि पाश्चयाताप करते हैं तो फिर मदद के लिए कहते हैं।
सदा स्मृति की ज्योति जगी रहे। अपने को कुल का दीपक समझे, यह बुझ नही जाना है। क्योंकि अखंड ज्योति अर्थात कभी नही बुझने वाली होती है। हम जड़ चित्रों के भी आगे अखंड ज्योति जलाते हैं। चैतन्य अखंड ज्योति का ही वह यादगार है, जिससे चैतन्य दीपक बुझ नही सकता है। इस आधार पर स्वयं को चेक करें कि हमारी स्मृति की ज्योति बुझ तो नही गई है।
अखंड ज्योति की निशानी है सदा स्मृति स्वरूप और समर्थी स्वरूप बनी रहे। अगर स्मृति स्वरूप हैं लेकिन समर्थी नही यह हो ही नही सकता। क्योंकि हमारी स्मृति ही है मैं मास्टर सर्व शक्तिमान हूं। मास्टर सर्व शक्तिमान अर्थात समर्थ स्वरूप। समर्थ अर्थात शक्ति स्वरूप। लेकिन, बुद्धि के अंहकार, नाम और शान के अंहकारी बन जाते हैं। तब हमारी स्मृति और समर्थी गायब हो जाती है। स्व दर्शन चक्र के बजाये व्यर्थ दर्शन का चक्र चलने लगता है। इससे हम व्यर्थ की कथाएं और कहानियां बड़ी रूचि सुनने के आदि हो जाते हैं।
हम अपनी नई दुनिया बनाने वाले हैं और अपने जीवन को नया बनाने के लिए तेज रफतार करने वाले हैं। इसके लिए पहले अपने जीवन में नवीनता लाएंगे तभी दुनिया में भी नवीनता आएगी। अपने जीवन रूपी बिल्डिंग को सुंदर और सम्पन्न बनाएंगे। कर्म द्वारा अपने तकदीर की लकीर खींच रहे हैं। वह है हद की हस्त रेखाएं और यह हैं कर्म की रेखाएं। जितना कर्म श्रेष्ठ और स्पष्ट होगा, उतनी ही हमारी भाग्य की रेखाएं श्रेष्ठ और स्पष्ट होगी। इस कर्म की रेखाओं के आधार पर हम अपना भविष्य खुद ही देख सकते हैं। हमें सदा अपने अधिकारीपन के स्टेज पर रहना है, कभी भी माया के अधीन नही होना है। अधिकारीपन के शुभ नशे में जो रहते हैं, ऐसे अधिकारी स्टेज वाले ही वहां के अधिकारी बनेंगे।
अव्यक्त बाप-दादा, महावाक्य मुरली 2 फरवरी 1977
लेखक : मनोज श्रीवास्तव, सहायक निदेशक सूचना एवं लोकसम्पर्क विभाग उत्तराखंड