सेवा का विशेष गुण है संतुष्टता
देहरादून : सहन करना अर्थात अपने में शक्ति भरना और दूसरों को शक्ति देना है, सहन करने का अर्थ मरना नहीं है। क्योंकि कुछ लोग कहते हैं कि हम तो सहन करते करते मर जायेंगे। हमारा लक्ष्य मरना नहीं है ना ही किसी को मारना है, बल्कि शक्ति लेकर शक्ति देना है। कैसा भी विरोधी हो रावण से भी तेज हो एक बार नहीं दश बार सहन करना पड़े फिर भी सहन करना चाहिए। इससे हमारी सहन शक्ति बढ़ती है। सहन शक्ति का फल दूरगामी होता है। हमारे सहन करने से आगे जाकर दूसरा जरूर बदल जायेगा। यह भावना न रखें कि मैंने इतना सहन किया है तो वह भी कुछ करे। अल्प काल के फल की भावना नहीं रखनी है बल्कि रहम भाव रखकर सेवा करनी है।
सहन करते समय सदैव अपने में अचल, अडोल बनने का अनुभव करना है। किसी भी प्रकार की हलचल में अचल रहना है। दुनिया भले ही हलचल में हो किन्तु हमें हलचल में नहीं आना है। इस अशांति के समय सबको शांति देना है। इससे हम स्वयं शांत स्वरूप और शक्तिशाली बनेंगे और दूसरों को भी शांति देते रहेंगे। वह अशांति दें, हम शांति दें, वह आग लगाये हम पानी डालें। इसे ही कहते हैं शांति का दान देना अथवा शांति का सेवा करना हलचल में भी व्यर्थ संकल्प न चले क्योंकि व्यर्थ संकल्प समर्थ नहीं बनने देता है। क्या होगा…………….. यह तो नहीं होगा……………….. यह व्यर्थ संकल्प का स्वरूप है। जो भी होगा उसे शक्तिशाली होकर देखें और दूसरों को भी शक्ति दें। इसके लिये जिन गुणों और अनुभवों का वर्णन करते हैं उस अनुभव में खो जायें क्योंकि अनुभव ही सबसे बड़ी एथारिटी है।
सच्चे सेवा धारी, श्रेष्ठ व्यक्ति के रूप में हर सेकेंड सफलता को प्राप्त करते हैं और दूसरों में उम्मीद रखकर उमंग, उत्साह के साथ आगे बढ़ाते रहते हैं। सेवा भाव अर्थात प्रत्येक व्यक्ति के प्रति शुभ भावना और श्रेष्ठ कामना है। सच्चे सेवा धारी प्रत्येक व्यक्ति को प्रत्यक्ष फल देने वाले होते हैं, इनकी सेवा से जो व्यक्ति जिस भावना का होता है उससे उसी भावना की प्राप्ति होती है। जैसे किसी को शक्ति के सहयोग की आवश्यकता है, किसी को खुशी की आवश्यकता है, किसी को शक्ति की प्राप्ति की आवश्यकता है तथा किसी को उमंग, उत्साह की आावश्यकता है। सच्चे सेवा धारी सभी को अपने सहयोग की अनुभूति कराता है इसे कहते हैं यथार्थ रूप में सच्ची सेवा।
सेवा अर्थात किसी व्यक्ति को प्राप्ति के मेवा का अनुभव कराना है। सच्ची सेवा में त्याग और तपस्या स्वतः विद्यमान रहता है। तपस्या का अर्थ है दृढ़ संकल्प से कोई कार्य करना। जहां यर्थाथ सेवा है वहां त्याग और तपस्या अलग नहीं है। त्याग, तपस्या और सेवा का कंबाइंड स्वरूप ही सच्ची सेवा है। नाम धारी सेवा अल्प काल के लिये होता है और अल्प काल का फल प्राप्त कराता है, अभी फल प्राप्त हुआ और अभी फल समाप्त हुआ। वहां ही सेवा किया, वहां ही फल प्राप्त किया और वहीं पर फल समाप्त हो गया। सच्ची सेवा की निशानी त्याग अर्थात नर्मता है। इसके अतिरिक्त इसका दूसरा अर्थ है तपस्या अर्थात एक परमात्मा के निश्चय के नशे में दृढ़ रहना। सच्चे सेवाधारी की जगह नामधारी बनने की निशानी है स्वयं भी डिस्टर्ब रहना और दूसरे को भी डिस्टर्ब करना। ऐसी सेवा ना करना ही अच्छा है।
सेवा का विशेष गुण है संतुष्टता। जहां संतुष्टता नहीं है वहां सेवा ना तो स्वयं को फल की प्राप्ति कराती और ना दूसरे को फल की प्राप्ति कराती है। यदि सेवा में संतुष्टता नहीं है तब सूक्ष्म बोझ का अनुभव अवश्य होगा। आगे चलकर इस प्रकार के अनेक बोझ हमारे विघ्न का स्वरूप बन जाते हैं, जबकि हमारा लक्ष्य बोझ उतारना है न कि बोझ चढ़ाना है। सेवा करते हुए बोझ रखने से अच्छा है कि हम एकान्तवासी बन जाएं। क्योंकि एकान्तवास में स्वपरिवर्तन का अटेंसन स्वतः ही जायेगा। सेवा में तपस्या अनिवार्यतः होती है। यह स्वयं सर्वशक्तियों से सम्पन्न बनाती है जो हमारी दृढ़ स्थिति बनाकर हमारे दृढ़ संकल्प द्वारा सेवा कराती है। सुख, शांति और पवित्रता का अनिवार्य संबंध है। जहां पवित्रता है वहां सुख, शांति स्वतः है। उसी प्रकार जहां सेवा है वहां त्याग और तपस्या स्वतः है। हमारा तपस्वी स्वरूप ही अपनी दृष्टि से सेवा कराती है। हमारा शांत स्वरूप चेहरा भी तपस्या कराता है। हमारे दर्शन मात्र से ही लोगों को प्राप्ति का अनुभव होता है। सेवा भाव अर्थात सेवा में सर्व कमजोरी को समाने का भाव है। कमजोरी के सामना करने का भाव नहीं है बल्कि कमजोरी को समाने का भाव है। स्वयं सह करके दूसरों को शक्ति देने का भाव है। इसे ही हम सहनशक्ति के नाम से जानते हैं।
- अव्यक्त बापदादा महावाक्य मुरली 09 अप्रैल 1986
लेखक : मनोज श्रीवास्तव, सहायक निदेशक सूचना एवं लोकसम्पर्क विभाग उत्तराखण्ड
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