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परिवार में सम्बन्धो को दे तवज्जो, बड़े बुजुर्गो का करें सम्मान

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posted on : अगस्त 13, 2020 11:04 अपराह्न

देहरादून : सम्बन्धो को बचाने के लिये माफ करना और माफी मांग लेना ही उपाय है। लेकिन जब सभी एक दूसरे को नीचा दिखाने के लिये शिक्षा देने लगते है तब सम्बन्ध और अधिक बिगड़ते है। इसलिये क्षमा के साथ शिक्षा दे। सम्बन्ध का आधार है त्याग और तपस्या। आर्थात एक ने कहा और दूसरे ने माना। इसमे जिम्मेदारी किसी एक के लिये नही होती है बल्कि सभी की होती है। लेकिन पहल स्वयं करके लीडरशिप के रोल में रहना होगा। परिवार में हमे अपने इगो को नही लाना चाहिए और परिवार में बड़े बुजुर्गो का हर समय करना चाहिए सम्मान. जो अपने बुजर्गो का नही करते सम्मान तो वह भी यह सोच ले कि उनके बच्चे भी नहीं करेंगे उनका सम्मान.

राजी में राजी रहना बड़ी बात नही है लेकिन नाराजगी में राजी रहना बड़ी बात है। इच्छा की जगह ,अच्छा बनना है क्योंकि इच्छा सम्बन्धो को समाप्त कर देती है। सर्व सम्पर्ण में अपना औऱ दुसरो का अधिकार समाप्त हो जाता है अर्थात सभी बातों में सम्बन्ध सर्वोपरि हो जाता है।

विकराल रूप परिवार में नही बल्कि अपने कमियों में दिखाना है,क्योकि कमजोरी नही, विशेषता महत्वपूर्ण है। विशेषता देखने की खूबी के कारण हम किसी कमजोर व्यक्ति को भी विशेषता युक्त बना देते है। विशेषता देखने के गुण के कारण हम किसी व्यक्ति में कमजोरी नही देखते है बल्कि विशेषता ही देखते है।

कमजोरी को इशारे से कहने के उद्देश्य से, उस व्यक्ति के विशेषता का वर्णन करते हुये बहुत अच्छा ,बहुत अच्छा कहते रहते है। ऐसा करते-करते वह व्यक्ति धीरे -धीरे बुरा से अच्छा व्यक्ति बन जाता है। यदि कोई व्यक्ति कमजोर हो और उसे बार-बार यह कहे कि तुम कमजोर हो , तुम कमजोर हो तब वह और भी कमजोर हो जाएगा। अर्थात एक तो वह पहले से ही कमजोर है और फिर यदि कोई उन्हें फिर से कमजोर हो कह दे तब यह सुनकर मूर्छित हो जाता है।

विशेषता को देखने का दर्पण , किसी व्यक्ति लिये संजीविनी बूटी का कार्य करता है। विशेषता की संजीवनी बूटी से उनकी मूर्छा दुर् हो जाती है। हमारे पास विशेषता होते हुए भी हम उस समय अपनी विशेषता को भूल जाते है। केवल विशेषता याद दिलाने से हम पुनः विशेष बन जाते है।

यदि हम किसी व्यक्ति के विशेषता का वर्णन करते है तब उन्हें स्वयं ही अपनी कमजोरी का और अधिक स्पष्ट अनुभव होने लगता है । अब हमें उन्हें उनकी कमजोरी को बताने की जरूरत ही नही पड़ेती है। यदि हम पहले ही उनकी कमजोरी उन्हें बताने लगेंगे ,तब वे अपनी कमजोरी को छिपाएंगे ,टाल देंगे और कह देंगे कि मैं ऐसा नही हूँ। इसलिये पहले कमजोरी के स्थान पर विशेषता का वर्णन करे। ऐसा करने पर वे अपनी कमजोरी को स्वयं महसूस करेंगे, क्योंकि जब तक कमजोरी को महसूस नही करेंगे तब चेंज भी नही लाएंगे। देने वाला कभी खाली नही हो सकता है, लेने वाला कभी भर नही सकता है। जो स्वयं से सन्तुष्ट होते है वह दूसरों से भी सन्तुष्ट होंगे।

मान में आकर एक गलती से अनेक गलतियां होने लगती है । कहाँ हमे मुँह दिखाना है और कहाँ पीठ दिखाना है, कहाँ सामना करना है और कहाँ सहन करना है। परिस्थितियों का सामना करना है और व्यक्ति को सहन करना है। सन्तुष्टता सर्व गुणों की खान है। इसलिये सम्बन्धो में सन्तुष्ट रहना होगा। यदि हम स्वयं के प्रयत्नों से सन्तुष्ट है , प्राप्ति स्वरूप मिलने वाले रिजल्ट से सन्तुष्ट है ,दुसरो से सन्तुष्ट हैऔर दूसरे हमसे सन्तुष्ट है तभी हमे वास्तविक रूप से सन्तुष्ट कहा जा सकता है। सन्तुष्टता अर्थात स्व से सन्तुष्ट, परिवार से सन्तुष्ट और परिवार के सम्बन्धो से सन्तुष्ट होना है।

किसी ही बड़े छोटे सम्बन्ध में सभ्यता का पालन अनिवार्य है। असभ्यता की निशानी है सिद्ध करना करना और दुसरो से गलत बात मनवाने की जिद करने। यदि जोश में आकर सत्यता को सिद्ध भी करते है,तब यह असभ्यता कहलाती है। असभ्यता में अनिवार्यतः असत्यता समाई होती है।

हम गलत बात को सिद्ध करते है और उसे सभी को मनवाने की जिद करते है। इसप्रकार सिद्ध करना और जिद करना असत्यता के गुण है। जो राजयुक्त नही होंगे, वे किसी राज को नही जान सकते है। नाराज वही होते है जो दूसरे के मन के राज को नही जानते है। मन के राज नही जानने के कारण हम अनेक गलतफहमियों के शिकार हो जाते है। मन के राज न जानने के कारण दुसरो को नाराज करते है और स्वयं भी नाराज होते है।

अपने स्वभाव की पहचान करनी होगी। स्वभाव अर्थात स्व का भाव। कोई व्यक्ति डिस्टर्ब नही होना चाहता है क्योंकि सभी को शांति चाहिए। डिस्टर्ब होने से बचने का साधन स्नेह है । जब कोई डिस्टर्ब होता है,कहता है मुझे कुछ नही चाहिए केवल स्नेह चाहिए। झगड़ा करके पश्चताप करते है कहते है कि मेरा स्वभाव ही ऐसा था लेकिन मेरा भाव ऐसा नही था। मेरा मन बिल्कुल साफ है। लेकिन क्या करे मजबूर था,चाहता तो नही था लेकिन बोल दिया, करना तो नही चाहता था लेकिन कर दिया।

लेखक : मनोज श्रीवास्तव, सहायक निदेशक, सूचना एवं लोकसम्पर्क विभाग उत्तराखंड, देहरादून

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