देहरादून : योगी व्यक्ति योग में रहते हुए कर्म को भूल जाता है और कर्मठ व्यक्ति कठोर परिश्रम करते हुए योग को भूल जाता है। जबकि कर्म योगी सदैव अपने कर्म और योग में बैलेंस रखता है।
कर्मयोगी कर्म करते हुए भी त्याग के भाव में रहता है। कर्मयोगी कर्म का त्याग नहीं करता है बल्कि कर्म में त्याग करता है। कर्मयोगी के लिए कर्म एक साधन होता है लेकिन योग एक साधना है। साधन का लक्ष्य साधना है और साधना का लक्ष्य परमात्मा मिलन है।
कर्म योगी वर्तमान के साथ-साथ भविष्य पर भी अपना ध्यान फोकस रखता है। ऐसा व्यक्ति भूत, वर्तमान और भविष्य अर्थात त्रिकालदर्शी स्वरूप में स्थित रहकर अपना समस्त निर्णय लेता है और सभी गतिविधियों में संचालित रहता है। इसलिए कर्मयोगी जहां वर्तमान में सफलता प्राप्त करता है, वहीं पर वर्तमान की सफलता भविष्य की सफलता अपने आधार स्वरूप की स्थापना करता है।
कर्मयोगी की मूल मान्यता में मैं, शरीर नहीं बल्कि आत्मा हूं। मैं कौन हूं, इस प्रश्न का उत्तर मैं आत्मा हूं। यह ज्ञान इनके फाउण्डेशन का आधार है और ज्ञान का यह फाउण्डेशन जीवन में परिवर्तन का आधार है।
कर्मयोगी के लिए सेवा महत्वपूर्ण होती है। कर्मयोगी सेवा को कर्म बंधन नहीं मानता है। यह समझकर सेवा करता है, इसलिए वह कर्म के बंधन का अनुभव नहीं करता है। कर्मयोगी अच्छी भावना रखकर, सेवा को सेवा समझकर सेवा करता है और शान्ति का संदेश देता है।
कर्मयोगी सेवा करते समय अटैचमेंट में नहीं आता है। कभी-कभी डाॅक्टर भी पेशेंट का ईलाज करते समय, पेशेंट के अटैचमेंट में आ जाते हैं। इसके प्रभाव से ईलाज कारगर नहीं होता है। सच्ची सेवा का लक्ष्य है त्याग और तपस्या। त्याग और तपस्या सेवा का आधार है। यह शरीर केवल निमित्त है और जीवन का निर्वाह का माध्यम है और मूल आधार आत्मा है। लेकिन हम शरीर निर्वाह में अपनी आत्मा को भूल जाते हैं।
भौतिकतावादी युग में हम धन को अत्यधिक महत्व देते हैं और आध्यात्म अर्थात आत्मा भूल जाते हैं। लेकिन धन में वृद्धि करते हुए अपनी आत्मा की आवाज को नहीं भूलना चाहिए। आत्मा को याद रखने की यह विधि और धन की वृद्धि दोनों साथ-साथ चलना चाहिए। धन की वृद्धि के लिए आत्मा को याद करने की विधि नहीं छोड़ना चाहिए।
कर्म और योग में बैलेंस रखना है अर्थात धन वृद्धि के साथ आत्मा की उन्नति पर भी ध्यान रखना है। ऐसा करके हम अपने इस दुनियां के कर्म को करते हैं और कर्म योगी कहलाते हैं। हमें कर्म ही नहीं करना है बल्कि कर्मयोगी भी बनना है अर्थात व्यवहार और परमार्थ में संतुलन रखना है।
कर्म योग के संतुलन द्वारा हम डबल कमाई करते हैं। हमारे पास स्थूल धन भी आता है और आत्मा की उन्नति भी होती रहती है। धन की वृद्धि विनाशयुक्त है, जबकि आत्मा की उन्नति अविनाशी कमाई है। मैं निमित्त हूं लेकिन कमाने वाला परमात्मा है अर्थात कभी करन, करावनहार को नहीं भूलना चाहिए। यदि हम बस्तुओं के प्रति अनासक्त भाव रखते हैं तब यह बस्तु हमारे सामने दास के रूप में सामने नजर आयेगी। लेकिन यदि हम बस्तुओं में आसक्ति रखते हैं तब यही बस्तु हमें चुम्बक की तरह अपनी तरफ आकर्षित करके फंसाने वाली होगी।
आज दुनियां के आकर्षण और चकाचैंध में दुनियां में अल्पकाल के सुख रूपी साधनों का प्रयोग करते हैं। इसलिए चेक कर लें कहीं हम साधनों के पीछे अपने साधना को तो नहीं भूल गये हैं। यदि साधनों के आधार पर हम अपनी साधना करेंगे तब यह रेत के फाउण्डेशन पर बिल्डिंग के समान होगी। ऐसा करके हम हमेशा हलचल और डगमग में होंगे। हमें सदैव डर होगा कि अब गिरा, तब गिरा।
साधन विनाशी है जबकि साधना अविनाशी है। विनाशी साधन के आधार पर अविनाशी साधना को नहीं प्राप्त किया जाता सकता है। साधना में जाने के लिए हमें आवाज से परे जाने का अभ्यास करना होगा। यह अव्यक्त स्थिति, आत्मिक स्थिति और स्व स्थिति के अनुभव का अभ्यास है। स्व स्थिति अनुभव के अभ्यास से जब हम पुनः आवाज की दुनियां में वापस आते हैं तब हमें यहां आवाज नहीं लगती है बल्कि शान्ति का अनुभव होता है।
अव्यक्त महावाक्य बाप दादा 31 दिसम्बर, 1970
लेखक : मनोज श्रीवास्तव, प्रभारी मीडिया सेंटर विधानसभा देहरादून।
Discussion about this post