देहरादून : कर्म युद्ध के भूमि पर किले का मजबूत रहना जरूरी है। मजबूत स्थूल किला पर दुश्मन का वार नहीं हो सकता है। इसी प्रकार सूक्ष्म किला भी इतना मजबूत होना चाहिए कि कोई भी विकार हमारे भीतर प्रवेश न कर सके। किले की मजबूती ही हमारे संगठन का आधार है। यदि दिवार की एक ईट का भी सहयोग नहीं मिलता है तब किला सेफ नहीं रह सकता है। एक ईट भी जरा भी हिल जाये तब कमजोरी के प्रवेश का रास्ता मिल जाता है। कहने को तो एक ईट की कमी है लेकिन इसकी कमजोरी चारों तरफ फैल जाती है।
लाईट हाउस और माईट हाउस किले के मजबूती का आधार है। लाईट हाउस अर्थात ज्ञान और माईट हाउस मतलब शक्ति। यदि ज्ञान हो और शक्ति न हो तब, वह ज्ञान व्यर्थ है। माचिस होती है और उसे जलाना न आता हो तब अग्नि नहीं निकल सकती है। अलौकिकता के नशे में निशाना अचूक लगता है। अपने चरित्र द्वारा, चलन द्वारा, वाणी द्वारा और वायुमण्डल द्वारा सहयोग की भावना रखने का लक्ष्य किले को मजबूत करता है।
कहते हैं, अब तक जो हुआ वह ठीक हुआ। अच्छा तो सभी कुछ होता है लेकिन हमें अच्छे से अच्छा करना है। हम विस्तार में तो जाते हैं लेकिन बीच रूप को भूल जाते हैं। विस्तार में जाते हुए अपने बीज रूप को नहीं भूलना है। अति विस्तार के बाद बीज रूप प्रत्यक्ष होता है। इसलिए हमें वैरायिटी और विस्तार के आकर्षण से निकल कर अपने बीज रूप पर अटेंशन रखना है।
सार रूप बनने से समय और संकल्प की बचत होती है। जैसे विस्तार में जाने पर वाणी में भी सहज रूप में आ जाते हैं वैसे वाणी से भी विस्तार के बजाय सार रूप में स्थित हो जायें। जो स्वयं को विस्तार को ज्यादा लाते हैं वह दूसरों को सार रूप में कैसे स्थित कर सकते हैं। किसी बात को सुनते और देखते समय, विस्तार में जाने बुद्धि को बहुत समय से आदत पड़ गयी है, इसलिए विस्तार में जाने की कोशिश करते हैं।
जो देखा और सुना उसके सार रूप को जानकर एक सेकेण्ड में समाकर परिवर्तन करने की आदत कम है। इसलिए न चाहते हुए भी हम क्यों, क्या और कैसे के विस्तार में चले जाते हैं। जैसे बीज में शक्ति अधिक होती है और वृक्ष में कम होती है। इसलिए बीज सार है और वृक्ष विस्तार है। किसी चीज का विस्तार होगा तब शक्ति का भी विस्तार होगा अर्थात विस्तार में शक्ति कमजोर होगी। इस रीति से विस्तार में जाने पर समय और संकल्प दोनों ही व्यर्थ चला जाता है। और व्यर्थ जाने के कारण शक्ति, शक्ति नहीं रह जाती है।
इसके लिए हमें अभ्यास करना होगा और अपनी श्रेष्ठ स्थिति बनाकर रखनी होगी। ऐसा अभ्यास करते-करते हम स्वयं सार रूप बन जाने के कारण दूसरे व्यक्ति को भी अपनी बात और भावना एक सेकण्ड में पहुंचा सकते हैं। पाॅवरफुल बीज में ही पाॅवरफुल स्थिति होती है। विस्ताररूप जटिलता और समस्या पैदा करता है, जबकि सार रूप समाधान देता है। बाहर विस्तार है, लेकिन अन्दर सार है। अति विस्तार में जाने से अर्थ का अनर्थ हो जाता है। हैं। पाॅवरफुल बीज और पाॅवरफुल साधनों की सहायता से किसी में भी परिवर्तन करने की शक्ति होती है। सम्पर्क में आने पर दूसरी चीज स्वतः परिवर्तित हो जाती है।
ऐसे ही हम अपने पाॅवरफुल स्टेज पर स्थित रहें। इसके परिणामस्वरूप जो व्यक्त भाव, वस्तु और व्यक्ति हमारे सम्पर्क में आते हैं, वह पाॅवरफुल स्टेज के कारण स्वतः परिवर्तित हो जाते हैं। व्यक्त भाव वाले, अव्यक्त भाव अर्थात् आत्मिक स्थिति बना लेते हैं। व्यर्थ बात समर्थ रूप धारण कर लेती है। विकल्प शब्द शुद्ध संकल्प में बदल जाता है। साधारण, असाधरण में बदल जाता है, लेकिन अभी तक हमारे पास समाने की शक्ति और परिवर्तन करने की शक्ति की कमी है, जिसे दूर करना है।
समाने की शक्ति और परिवर्तन करने की शक्ति की कमी को दूर करके हम लाईट हाॅऊस और माइट हाॅऊस बन जाते हैं। लाईट हाॅऊस अर्थात ज्ञान और माइट हाॅऊस अर्थात् शक्ति। ज्ञान हो परन्तु शक्ति न हो, वह ज्ञान व्यर्थ होता है। जिस प्रकार से माचिस हो, किन्तु जलाना न आता हो तो, माचिस व्यर्थ होती है।
भविष्य, भूत और वर्तमान काल को बिना देखकर कर्म करने से हमारा संकल्प, बोल और कर्म अर्थ का अनर्थ हो जाता है। हम कर्म बन्धन के बस में चले जाते हैं। साक्षीपन की स्थिति में कर्म न करने के कारण हम कर्म बन्धन के वशीभूत हो जाते हैं। वशीभूत होना अर्थात् भूतों का आह्वाहन करना। इसलिए चैक करें कि हम कर्म बन्धन से युक्त होने वाला कर्म कर रहे हैं अथवा हम कर्म बन्धन से मुक्त होने वाला कर्म कर रहे हैं। बन्धन मुक्त होने वाला बन्धन युक्त नहीं हो सकता है।
बन्धन युक्त होने के कारण हम जो नहीं चाहते हैं, वह भी करने लगते हैं। महसूस करते हैं यह नहीं होना चाहिए, यह होना चाहिए, यह खत्म हो जाना चाहिए, काश हमें खुशी और सन्तुष्टता का अनुभव हो जाय और और हमारा सर्विस सक्सेफुल हो जाय। लेकिन कर्मों के बन्धन के कारण चाहते हुए भी हम यह नहीं कर पाते।
इसके कारण हम न तो स्वयं संतुष्ट रहते हैं और न दूसरों को संतुष्ट कर पाते हैं। छोटी गलती भी संकल्प के रूप में रह जाती है तब उसका हिसाब-किताब बड़ा हो जाता है। इसलिए आज से छोटी गलती को भी बड़ा समझाना होगा। यदि अति स्वच्छ सफेद वस्त्र पर छोटा दाग लग जाय, तब वह भी बड़ा दिखने लगाता है।
अब हम बदल चुके हैं, इसलिए इससे अनजान नहीं रहना है। समय के साथ पुरूषार्थ की रफ्तार बदल चुकी है। इसलिए वर्तमान समय में छोटी गलती भी बड़ी मानी जायेगी। इसलिए हर कदम पर सावधान रहना है। एक दोटी गलती भी बड़ी प्राप्ति से वंचित करा देती है। जब अनेकों को रास्ता दिखाने वाले स्वयं ही चलते-चलते रूक जायेंगे, तब दूसरों को रास्ता दिखाने वाले निमित कैसे बनेंगे।
लेखक : मनोज श्रीवास्तव, सहायक निदेशक सूचना एवं लोक सम्पर्क विभाग उत्तराखंड
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