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किस्सा-कहानी
1950 से पहले का दौर। जब देश में ही गिने-चुने स्कूल हुआ करते थे। उस दौर में उत्तराखंड में कितने स्कूल रहे होंगे, आप खुद ही अंदाजा लगा सकते हैं। लेकिन, क्या आप कल्पना कर सकते हैं कि उस दौर में उत्तरकाशी जिले के सबसे पिछड़े इलाके, जो आज भी विकास की रफ्तार में कहीं पीछे छूट गया है। उस दौर में बेटियां तो दूर की बात, बेटे भी स्कूल नहीं जाते थे। लेकिन, रवांई घाटी की एक बेटी ऐसी भी थी, जो उस दौर में केवल उत्तरकाशी जिले में ही नहीं, बल्कि पूरी टिहरी रियासत में चर्चाएं बटोर रही थीं। उनकी कहानी हम आपको बताने जा रहे हैं।
कहानी राजशाही के दौर की
कहानी राजशाही के दौर से शुरू होती है। पांच दर्जा तक का स्कूल तो खुल गया था, लेकिन उससे आगे की पढ़ाई मुश्किल थी। इतनी मुश्किल कि किसी आम आदमी के लिए इसके बारे में सोचाना भी कठिन था। बेटियों की पढ़ाई की तो लोग कल्पना भी नहीं करते थे। उस दौर में एक बेटी का पढ़ाई के लिए गांव छोड़कर दूसरी जगह जाना तो बहुत बड़ी बात थी। उस दौर में जो मुहिम और प्रयास एक पिता ने अपनी बेटी को पढ़ाने के लिए किए वह अपने आप में बालिका शिक्षा की दिशा में किसी बड़ी क्रांति से कम नहीं था। कहानी को आगे बढ़ाने से पहले राजशाही की कहानी को बताना भी थोड़ा जरूरी है। साहित्यकार और शिक्षक ध्यान सिंह रावत ‘ध्यानी’ ने रवांई की पहली पढ़ी-लिखी बेटी सत्यभामा की कहानी को कुछ इस तरह से बयां किया है।
गिने-चुने स्कूल थे
टिहरी रियासत 1949 को संयुक्तप्रान्त उत्तर प्रदेश का एक हिस्सा बनी। रियासत काल में शिक्षा की दशा और दिशा संतोषप्रद नहीं थी। महाराजा प्रतापशाह ने कुछेक स्कूल तो खोले। महाराजा कीर्तिशाह ने प्रत्येक पट्टी में एक-एक प्राईमरी पाठशाला खोली थी। रवांई परगने में महाराजा नरेन्द्रशाह के शासन काल में कीर्ति आधारिक विद्यालय उत्तरकाशी, प्राइमरी पाठशाला राजगढ़ी, पुरोला, ठडियार आदि गिने-चुने स्कूल खुल चुके थे। इसके बाद महाराजा नरेन्द्र शाह के शासन काल में इस ओर कुछ सुधार तो हुआ, तत्कालीन समय में पहाड़ की भौगोलिक परिस्थितियां भी पहाड़ जैसी ही विकट थी। शिक्षा की ओर यहां का जनमानस बिल्कुल बेपरवाह था।
लाखीराम बडेड़ी
उस जमाने बेटियों को बहुत कम उम्र में ही ब्याह दिया जाता था। लेकिन, इसी समाज में एक ऐसा दूरदृष्टि रखने वाले शख्स भी थे, जिन्होंने बालिका शिक्षा को एक नई दिशा देने का काम किया। उन्होंने बेटी को पढ़ाने के लिए मिथकों को एक झटके में किनारे रख दिया और अपनी बेटी को पढ़ाई के दूर उत्तरकाशी भेजा। उनका नाम था लाखीराम ‘बडेड़ी’। एक ऐसी व्यक्तित्व, जिनके बारे में आज भी कहानियां सुनाई जाती हैं।
आधी कु राजा, आधी कु बाजा
केवल इन्होंने ऐसा काम नहीं किया, जिसकी चर्चा हुई है। उनके पुरखे भी किसी से कम नही थे। ऐसा माना जाता था कि टिहरी रियासत में आधी संपत्ति राजा की थी और आधी संपत्ति बाजा बड़ेड़ी की। एक कहावत भी प्रचलित थी ‘‘आधी कु राजा, आधी कु बाजा।’’ अर्थात आधा हिस्सा राजा का और आधा बाजा का।
1803 में गोरखा आक्रमण
1803 में गोरखा आक्रमण और लूट के दौरान बाजा की संपत्ति को गोरखे आक्रान्ता लूट कर ले गये थे। यहां तक कि बाजा की बहिन हिरमोली और शोभा गोरख्या के गीत आज भी रवांई क्षेत्र में गाये जाते हैं। बाजा के बेटे केशर सिंह उर्फ ‘केशरू’ बडेड़ी इसी परिवार का ‘संयाणा’ और भड़ हुए, जिनकी राज दरबार तक पहुंच थी। लाखिराम बडेड़ी केशर सिंह के बेटे थे, जो उस जमाने के पढ़े-लिखे और प्रतिष्ठित व्यक्ति थी, जब सिर्फ टिहरी में ही एक मात्र स्कूल था। बाद में ये राजदरबार की ओर से लेखपाल भी रहे।
बडियाड़ और रामा सेरांई के ‘संयाणे’
पिताजी की विरासत पाकर बडियाड़ और रामा सेरांई के ‘संयाणे’ हुए। महाराजा का संरक्षण पाकर अपने क्षेत्र में शांति व्यवस्था बनाए रखने के लिए आवश्यक निणर्य भी लेते थे। लाखिराम बालकों की शिक्षा के साथ-साथ बालिकाओं को भी समान रूप से शिक्षा देने के पक्षधर थे। उन्होंने यह पहल अपने घर से शुरू की और अपनी बहिन जयपाल देई को दर्जा 4 तक रियासत काल में पढ़ाया। बाद में वे अध्यापिका भी बनी। संतान की चाह और कारोबार को चलाने के लिए इन्हें सात शादियां भी करनी पड़ी लेकिन, इनके भाग्य में एक मात्र संतान पुत्री रूप में 1945 में सत्यभामा ही हुई।
कंडियाल गांव
बेटी का बचपन बहुत ही लाड़-प्यार और शानो शौकत से गुजरा। घर पर किसी थी चीज का कोई अभाव नहीं रहा। हजारों भेड़ बकरी, जमीन जायदाद, नौकर चाकर सब को अलग-अलग कोमों की जिम्मेदारी थी। इनका परिवार पुरोला के पास कण्डियाल गांव और बडियाड़ में पुरखों के जमाने के बनाए पुश्तैनी घर में रहता है। कण्डियाल गांव का मकान एक छोटा महल जैसा ही लगता है।
अतीत की यादों को समेटे
इस हवेलीनुमा मकान पर लकड़ी की अपेक्षा तराशे पत्थरों का अधिक प्रयोग किया हुआ है. सर बडियाड़ में तो इनके पंचपुरे ‘जौल’ (दो चौकट एक साथ बने जिनकी ऊपर से जो दो ढालदार छत होती थी।) चौकटों और ‘कुठारों’ जो ठीक मकान के सामने हैं। उसका दरवाजा आज भी लोहे की मोटी सांकल से ऊंचे चौकट की अटाली के ऊपर एक मोटे दरख्त से बंधा है और बीच में कांसे की घंटी टंगी अपने अतीत की यादों को समेटे कुठार की रखवाली आज भी एक सजग प्रहरी की भांति निभा रही है।
सत्यभामा की कहानी उन्हीं की जुबानी
सत्यभामा अब 80 वर्ष की हो चुकी हैं। वो अपने बारे में लिखती हैं ‘‘तब और आज’’ में जमीन और आसमान का अन्तर है. दूर-दूर तक कोई स्कूल नहीं था। सुना है कि आजादी के इतने लम्बे समय बाद अब जाकर बडियाड़ के लिए सड़क मार्ग निर्माणधीन है। लाखीराम ने सत्यभामा उर्फ ‘सती’ और अपने भाई की बेटी को पढ़ाने के लिए घर पर ही एक शिक्षक रख लिया था. जो पौड़ी गढ़वाल के थे। वे कहती हैं कि मैने कोई नियमित प्राईमरी स्कूली शिक्षा नहीं ली। घर पर गुरुजी ने जो कुछ पढ़ाया, वही आगे जाकर मेरे ज्ञान की नींव बनी।
पांचवी का इम्तिहान
देश जब स्वतन्त्र हो गया तो पिताजी मुझे और मेरी चचेरी बहिन को पांचवी का इम्तिहान दिलाने के लिए पुरोला ले गये तो उसी दौरान क्षेत्र के गणमान्य लोग जिनमें गुन्दियाटगांव से पं. मनीराम, पोरा से पं. बालकृष्ण और पिताजी ने महारानी से मिलकर गुन्दियाट गांव में कन्या पाठशाला खोलने की विनती कर चुके थे।
दर्जा आठ के बाद की चिंता
उनकी मेहरबानी से जब पहली जूनियर कन्यापाठशालाा गुन्दियाट गांव में खुली तो हमारा दाखिला नवीन विद्यालय की कक्षा 6 में कर दिया गयो। हम पूरे क्षेत्र की मात्र तीन लडकियां ही थी, जिनमें एक स्कूल की परिचायिका की बेटी जो अनु. जाति की थी और ताराचन्द डाक्टर की तीन बेटियां भी देहरादून से आकर यहीं पढ़ने लगी तो कुल मिलाकर हम छः लड़कियों हो गयीं। दर्जा आठ कर लेने के बाद पिताजी के सामने मेरी आगे की पढ़ाई की चिन्ता सताने लगी थीं।
मेरे सपने बहुत ऊंचे थे
वो आगे लिखती हैं कि मेरे सपने भी बहुत ऊंचे थे। उन्होंने बहुत हाथ-पैर मारे पर उन्हें कुछ भी नहीं सूझ रहा था कि कहां जा कर अब बेटी को पढ़ाऊं। वे चाहते थे कि पं. जवाहर लाल नेहरू की बेटी इन्दिरा की भांति मेरी बेटी भी आगे बढ़े और पढ़े। तब पिताजी वृद्ध भी हो गये थे तो स्वभाविक ही था कि उन्हें जहां मेरी पढ़ाई की चिन्ता थी, वहीं मेरी शादी की फिक्र भी थी।
परिवार के लिए बड़ी चुनौती
तब तो बहुत कम उम्र में ही ब्याह कर दिया जाता थो। मेरे सगे चाचा बद्री सिंह मेरी आगे की पढ़ाई के पक्षधर बिल्कुल भी नहीं थेे। चूंकि उस दौर में टिहरी देहरादून जाकर पढ़ना होता था. उत्तरकाशी में कीर्ति स्कूल 10वीं तक खुल चुका थो। एक दूरस्थ क्षेत्र और गांव के परिवेश में पली बढ़ी लड़की को देहरादून में रखना हमारे परिवार के लिए एक बड़ी चुनौती थी। जाने का कोई साधन नहीं थो। कई दिनों तक का पैदल ऊबड़-खाबड़ जंगली़ वीरान रास्ता स्वयं पहाड़ बन कर हमारे सामने एक प्रकार से चुनौती दे रहा था. किन्तु कहते हैं कि ‘‘जहां चाह है, वहां राह भीे।’’
ऐसे दूर हुई दुविधा
स्वतन्त्रता के बाद कण्डियालगांव पुरोला में एक मेंढा केन्द्र चलता थो। उस केन्द्र का निरीक्षण करने जो अधिकारी उत्तरकाशी से हमारे गांव आते वे सीधे मेरे पिताजी के पास ही आकर रूकते थेे। जब उन्होंने मेरे बारे में सुना कि मैने आठवीं पास कर लिया है ओर आगे की पढ़ाई की कोई सम्भावना नहीं है तो उन्होंने मुझसे पूछा- ‘‘बेटी क्या तुम आगे पढ़ना चाहती हो?’’ तो मैने उनसे हां तो कर दी पर दुविधा बनी थी कि पढ़ाई करने जाना कहां है? मैने सुना था कि देहरादून, टिहरी, उत्तरकाशी तो कोशों दूर हैं।
उत्तरकाशी में नौवीं में एडमिशन
उन्होंने पिताजी से कहा- ‘‘लाखीराम जी यदि आपको कोई आपत्ति नहीं हो तो मेरे भी तीन बेटियां हैं और उत्तरकाशी में पढ़ती हैं यह भी मेरी बेटी ही हुई आप इसे उत्तरकाशी ले आओ वहीं इसको 9वीं में प्रवेश दिला देंगे और मेरे ही घर पर रह भी लेगीे।’’ बस फिर क्या था हमें एक सहारा मिल गया. मेरी उत्तरकाशी जाने की तैयारी होने लगी. मेरी माताओं ने सुना कि मैं दूर पढ़ने जा रही हूं तो उनको बहुत बुरा लगा उन्हें तो मेरी जाने की चिन्ता सताने लगी थीं. यद्पि वे पिताजी से कुछ कह तो नहीं पाती पर चुपके-चुपके आंसू बहाती रहती. मैं उन्हें ढ़ाढस बंधाती कि मैं रह लूंगी तुम मेरी चिन्ता क्यों करती हो? मुझे पढ़ने जाना हैे।
तीन दिन में पहुंचे
मैं पिताजी और दो और आदमी जिनमें एक मेरी चचेरी बहिन का बेटा बलवीर जिसकी मां उसके बचपन में ही गुजर गयी थी, उसे भी पिताजी ने अपने ही घर पर रखा, वहीं पला बढ़ा और मुझे मौसी कह कर पुकारता थो। घोड़ों की लगाम भी वही पकड़ता थो। हम चारों तीन घोड़ों के साथ आवश्यक सामग्री लेकर निश्चित तिथि को उत्तरकाशी के लिए चल दियेे। तीसरे दिन हम उत्तरकाशी पहुंचेे। मेरा ‘एडमिशन’ और रहने के लिए कमरा सब हो गयो। पिताजी वापस लौट आयेे। आरम्भ में एक निजी परिवार का ही व्यक्ति मेरी हेर-देख के लिए मेरे साथ ही रूका रहो।
परीक्षा परिणाम अच्छा नहीं रहा
वह खाना बनाता और कपड़े धो लेता था। मैंने अपने एक रिश्ते के जीजा के कहने से उस जमाने विज्ञान वर्ग चुना किन्तु मेरी बुनियाद मजबूत नहीं हो पायी थीे। कक्षा 5वीं तो हवा हवाई में कर दिया, तीन साल आठवीं तक कुछ मेहनत जरूर की पर पर्याप्त नहीं थीे। मेरा परीक्षा परिणाम नौवीं में अच्छा नहीं रहो। दूसरे साल फिर मेहनत की। इस बार पिताजी ने मुझे गोविन्द निवास में रखा जो एक प्रकार से हॉस्टल थो।तीन साल मैं उत्तरकाशी में रहीे। जब घर आती थी तो कई बार हमें राड़ी डांडे में 5-6 फीट तक की बर्फ और मौसम के प्रतिकूल भी चलना पड़़ता पर कभी मेरे हौसले कम न हुऐ।
कालसी डांगे की चढ़ाई
कभी देर हो जाने पर किसी गांव में भी रात्रि विश्राम करना होता थो। मैं जितनी बार भी आती-जाती बलवीर घोड़ा लेकर हर बार मेरे पास पहुंच जाता थो। राड़ी डांडे की विकट खड़ी चढ़ाई के उपरांत जब हम दूसरी ओर यमुना घाटी की ओर नीचे उतर कर यमुना नदी पर बने पुल को पार करते तो पट्टी ठकराल, बनाल के गांवों से होकर गडोली, बिगराड़ी फिर एक और चढ़ाई कालसी के डांडे को पार कर पुरोला की कमल सेरांई घाटी के लिए उतरते तब जाकर अपने गन्तव्य को पहुंचते थेे। मैं अक्सर सोचती कि मैं अपने क्षेत्र के विकास के लिए कुछ भी हो रोड और बड़ा स्कूल खोलने के लिए प्रयास करूंगीं।
बातूनी बलबीर
एक दिन उत्तरकाशी से आने के दौरान हमें गडोली आते-आते रात हो गयी थी. वहां बनाल के थोकदार संयाणे रणजोर सिंह के छोटे भाई कुंवर सिंह की दुकान थी और रास्ता भी उनकी दुकान के करीब से होकर गुजरता थो। बलवीर सिंह बहुत बातूनी था। इतनी बातें करता था कि सामने वाले को तो बस चुप ही रहना होता।
गडोली और दुनकाणी
दुकान के पास घोड़ा रोककर वह लालटीन में तेल डलवाने के लिए दुकान में चला गया और बातों में लीन हो गयो। हम रास्ते में देर तक उसकी प्रतीक्षा करते रहे.’’ तब कुंवर सिंह ने बलवीर से पूछा ‘‘तुम कहां से आ रहे हो?’’ तो उसने बताया- मैं अपनी मौसी जो उत्तरकाशी में पढ़ती है उसे लेने गया हुआ था अब हम ‘दुनकाणी’ जा रहे हैं, रात को वहीं रहेंगे सुबह वहां से हम कालसी डांडे के रास्ते से होते हुए शाम तक कण्डियाल गांव पहुंच जायेंगेे।’’ बलवीर ने उत्तर दियो। ‘‘कौन मौसी?’’
राजकुमारी जैसा
‘‘सत्यभामा मौसी, लाखीराम नाना की लड़की जो उत्तरकाशी में पढ़ाई कर रही है।’’ बलवीर ने कहो। अरे हां सुना तो है कि लाखीराम संयाणा अपनी बेटी को उत्तरकाशी पढ़ा रहा है ये तो बड़ी बात हैे। उसे भी इधर बुला लो, कहां हैं? ‘‘नहीं कोई बात नहीं मामा जी, वह घोड़े पर बैठी है मै लालटीन में मिट्टी का तेल डालकर बस जा रहा हूं।’’ बलवीर ने कहा तो, कुंवर सिंह स्वयं ही उसे बुलाने दुकान से बाहर आ गये। उस दौर में सत्यभामा का पढ़ाई करने जाना और आना एक राजकुमारी के जैसे ही था।
पढ़े-लिखे और अनपढ़ के बीच का भेद
‘‘सत्यभामा कहती हैं कि मेरे बहुत मना करने के बावजूद भी वे नहीं माने और हमें घर के भीतर बुला ही लिया। परिवार के सभी सदस्यों से मुलाकात हुई। कुछ बातें हुई।’’ कुंवर सिंह भी दुकान बन्द कर कमरे में आ गये। ‘‘क्या नाम हैं बेटी तुम्हारा?’ कुंवर सिंह ने पूछा। ‘‘जी सत्याभामा।’’ ‘‘रूप-रंग, नयन-नक्ष, सौर-सलीका, बात-चीत का निराला ढंग देखकर कुंवर सिंह मन ही मन पढ़े-लिखे और अनपढ़ के बीच के भेद का आंकलन कर रहे थे। वे नहीं माने और हम खाना खाने के बाद बिगराड़ी गांव के दुनकाणी के लिए निकल गये। उन्होंने बहुत रोका पर हम नहीं माने। दुनकाणी मुश्किल आधा किमी की दूरी पर था।’’ वहां पर होटल वाले को पिताजी ने हिदायत दी हुई थी।
नौकरी की सब दिशाएं खुली थी
मेरी पढ़ाई के बाद उत्तरकाशी से जब वापस आई तो मेरे लिए नौकरी की सब दिशाएं खुली थी। मैं कोई ‘जॉब’ करना चाह रही थी, लेकिन पिताजी को मेरा विवाह किसी संभ्रान्त परिवार में राजकुमार जैसे दामाद से करने के सपने आने लगे थे। चूंकि पूरे क्षेत्र में अकेली ऐसी लड़की जो आठवीं से आगे की पढ़ाई के लिए रवांई क्षेत्र के बाहर से पढ़-लिख़कर आयी थीं। कुंवर सिंह जो स्वयं भी टिहरी और नरेन्द्रनगर में नाजीर के पद पर रहे थे। उनका छोटा बेटा जगवीर रावत जो पढ़ाई में बहुत होनहार था, उस दौर में इलाहाबाद जाकर तैयारी कर रहे थे ‘इन्जीनियरिंग’ की ट्रेनिंग कर अपने क्षेत्र के पहले ‘आर्केटेक्ट इन्जीनियर’ भी बने।)
ऐसे तय हुई शादी
लाखीराम ने अपने कुलपु रोहित गैर बनाल के सूर्य प्रसाद गैरोला को घर पर बुलाकर कुंवर सिंह के बेटे से रिश्ते के सम्बन्ध बात छेड़ने के लिए कहा। पंडित जी थोकदार रणजोर सिंह के घर चले गये। बातों की भूमिका बन जाने पर सूर्य प्रसाद जी ने कुंवर सिंह के पुत्र का विवाह लाखीराम की पुत्री सत्यभामा जो रवांई में एक मात्र पढ़ी-लिखी लड़की थी से करने की बात छेड़ दी।
सोने की अशर्फियों की पिठाईं
ऊहा-पोह की सी स्थिति बनी रही। दोनों परिवारों की आपस में दूर तक भी कोई रिश्ता नहीं था। बहुत उठा-पटक के बाद कुंवर सिंह रिश्ते की बात पक्की करने घोड़े पर बैठकर कण्डियाल गांव गये। उन पर लाखीराम ने बाकायदा सोने की अशरफियों की पीठांई लगाई थी। बारात जब आई तो हर बारातियों को उस दौर में पीठाईं लगायी गई और भव्य स्वागत हुआ। पच्चीस से तीस घोड़े बारात में आये थे।
नाला और कांठा दिया दान
दुल्हन जिस पालकी में बैठकर आयी उसे तब टार्च की रोशनी से पाट दिया था। क्षेत्र में कहीं भी बिजली नहीं थी। लोग टार्च की रोशनी को देखकर दंग रह गये थे। दुल्हन को विदा करने हजारों लोग कतार में दोनों ओर खड़े थे। इतना ही नहीं लाखीराम बडेड़ी ने बेटी को दहेज में अपनी हैसियत से जो कुछ दिया, बावजूद सर गांव में पानी का नाला और कांठा तक (चरान-चुगान क्षेत्र) दान दिया हुआ है। आज भी बड़े बुजुर्ग सत्यभामा की पढ़ाई और शादी का जिक्र करना नहीं भूलते।
दोनों बेटे इंजीनियर
सत्यभामा अपने पति इं. जगवीर रावत अपने दो बेटों और एक बेटी के साथ लखनऊ में रह रही हैं। दोनों बेटे भी इंजीनियर हैं एक लंदन में जॉब कर रहा तथा छोटा वाल दुबई में है। बेटी लखनऊ में जॉब पर हैं। इतना ही नहीं इन्होंने न सिर्फ अपने परिवार के बच्चों को आगे बढ़ाया ही साथ ही गांव और क्षेत्र के बच्चों का भी उचित मार्गदर्शन किया है।
इतिहास : लाखीराम ‘बडेड़ी’ की बालिका शिक्षा क्रांति, रवांई की पहली पढ़ी-लिखी बेटी ‘सत्यभामा’