- मनोज श्रीवास्तव
देहरादून : एक तरफ राजा का अधिकार अर्थात सर्व प्राप्तियों के अधिकारी हैं और दूसरी तरफ ऋषिपन में रहते हुए बेहद के वैराग्य वृत्ति वाले हैं। एक तरफ सर्व प्राप्ति के अधिकार का नशा है तो दूसरी तरफ वैराग्य का आलौकिक नशा है। जितना ही श्रेष्ठ भाग्य होगा, उतना ही श्रेष्ठ त्याग भी होगा। दोनों का बैलेंस हो तभी हम कहेंगे कि हमारे भीतर अधिकारीपन का नशा है और आलौकिक वैराग्य वृत्ति का नशा है।
वैराग्य वृत्ति का अर्थ है संसार से किनारा नहीे कर लेना है। बल्कि सर्व प्राप्ति के होते हुए भी हद के आकर्षण को बुद्धि के आकर्षण में नही लाना है। अर्थात संकल्प मात्र में अभिन्नता का भाग न हो। जैसे साइंस की शक्ति धरती के आकर्षण से परे कर लेती है। वैसे ही साइलेंस की शक्ति इन हद आकर्षणों से दूर ले जाती है।
अपने ऊपर संपूर्ण नियंत्रण अर्थात हम जो कर्मेंद्रियों को आर्डर करें वह वैसा करें अथवा न करें। हाथ नीचे करें, तो ऊपर हो जाए अथवा हाथ ऊपर करें तो नीचे हो जाए तो ऐसा न हो। ऐसे संकल्प और निर्णय शक्ति के रूप में हमारी बुद्धि ऐसे ही आर्डर पर चलती रहे। मन अर्थात संकल्प शक्ति को आर्डर करें कि अभी-अभी एकाग्रचित तो जाएं तब एक संकल्प में स्थित हो जाए। राजा का आर्डर उसी घड़ी मानना होता है, ऐसा नही कि चार मिनट अभ्यास के बाद हमारा मन मानें और एकाग्रता की बजाये हलचल के बाद फिर एकाग्र बने।
ऐसे ही हमारी बुद्धि अर्थात निर्णय शक्ति पर भी अधिकार हो। जिस समय जो परिस्थिति हो उसी अनुसार, उसी घड़ी निर्णय कर लें इसको कहते हैं बुद्धि पर अधिकार होना। ऐसे नही कि परिस्थिति और समय बीत जाए फिर निर्णय हो कि यह तो नही होना चाहिए था अगर यह निर्णय कर लेते तो बहुत अच्छा होता। इसलिए समय पर और यर्थात रूप में निर्णय लेना आवश्यक है। अपना आर्डर चलाने वाले अपने उपर इंद्रियों रूपी कर्मचारियों का दरबार लगाओं, चेक करें कि यह सूक्ष्म शक्तियां रूपी कर्मचारी हमारे कंट्रोल में है या नही।
इसके लिए सदैव सभी आकर्षण से मुक्त रहे। इसको कहते निर्लेप स्थिति अर्थात किसी प्रकार का आकर्षण के लेप में नही आना है। ऐसा नही सोचना है सिर्फ एक या दो कमजोरी रह गई है। एक सूक्ष्म शक्ति कंट्रोल में कमी है। बाकि तो सब ठीक है, लेकिन जहां एक भी कमजोरी है, वहां माया का गेट खुल जाता है। चाहे वह छोटा गेट हो अथवा बड़ा गेट, लेकिन गेट तो गेट ही है।
हमें अनेक बार विजयी रहने का सहज अनुभव करना है। स्मृति में रहें कि हर कदम में विजयी पड़ी हुई है। विजय होगी या नही होगी यह संकल्प में भी न उठे। जब निश्चय है कि अनेक बार के विजयी हैं तब विजय होगी या नही होगी यह क्योश्चन ही नही उठेगा। निश्चय की निशानी है नशा और नशे की निशानी है खुशी।
अव्यक्त-बाप दादा, महावाक्य मुरली 27 नवंबर 1987
लेखक : मनोज श्रीवास्तव, सहायक निदेशक सूचना एवं लोकसम्पर्क विभाग उत्तराखंड