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कोरोना और डिजिटल युग : वक्त बुरा है मैं नही मैं अखबार हूँ, मैं ही पत्रकारिता हूँ

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posted on : मई 23, 2020 1:39 अपराह्न

नैनीताल (हिमांशु जोशी): कुछ दिनों से अखबार के पन्नों की कम संख्या पर कितने पाठकों का ध्यान गया होगा और अगर गया भी होगा तो कितनों ने ये जानने की कोशिश करी होगी कि पिछले 240 सालों से देश की स्वतंत्रता में अहम भूमिका निभाने वाले, समाज में चेतना में लाने वाले और आपातकाल के दौरान जनता की हितों की सुरक्षा करने वाले समाचार पत्रों को ये क्या हो गया है ! वैसे कोरोना जैसी महामारी से एकमात्र बचाव सामाजिक दूरी पर भी सरकारी आदेशों का इंतजार करने वाली जनता से यह उम्मीद कम ही की जा सकती है।

आज आंख खुली तो हाथ खुद ही सिरहाने में दबे मोबाइल को ढूंढने लगे। टम्बलर, वाट्सएप, फेसबुक, ट्विटर, इंस्टाग्राम पर पूरी दुनिया घूम लेने के बाद न्यूज़ एप्लिकेशनस और न्यूज़ वेब पोर्टल्स से ई पेपर और लाइव न्यूज़ भी पढ़ ली। शाम होने तक टीवी , मोबाइल, लेपटॉप से सभी ब्रेकिंग न्यूज़ भी मिलती रही।

मुझे वो दिन भी याद आते हैं जब तेज़ बारिश में भी घर के बाहर एक सुरक्षित जगह रबर बैंड से लिपटा अखबार शहर, दुनिया की खबर से रूबरू करवाता था। बोर्ड परीक्षा का परिणाम हो या सुडोकु हल करने का मज़ा हर सुबह अखबार का बेसब्री से रहता था। राशिफल, शेयर बाजार, खेल जगत की खबरों का अखबार ही एकमात्र सहारा था।

रेडियो से मिल रही चुनौती के बाद वर्ष 1990 के बाद से केबल टीवी के आगमन के बाद प्रिंट मीडिया को चुनौती मिलने लगी। वर्ष 2000 की शुरुआत के साथ इंटरनेट और मोबाइल के बढ़ते बाज़ार से प्रिंट मीडिया की इलेक्ट्रॉनिक और नई मीडिया से प्रतिस्पर्धा और भी बढ़ गयी। जब तक अखबार में खबर आती है तब तक वह वायरल हो चुकी होती है और ई पेपर आने के बाद शायद ही उन पन्नों की क़ीमत कुछ रह जाती है। 2020 में कोरोना इस शताब्दी की सबसे बड़ी खबर है पर शायद इस ख़बर को छापने से पहले कई अखबार अस्तित्व में ही ना रह पायें।

बड़ो को घर से निकला नही जाता उनकी नसीहतें भी काम आती हैं। पत्रकारिता आत्मा है तो अखबार शरीर है। समाचार पत्र मेनस्ट्रीम मीडिया का तबका खो रहा है। कोरोना के कारण प्रिंट मीडिया से जुड़े 20-30 लाख लोग घर से काम करने पर मजबूर हैं और उनके समक्ष वेतन कटौती, नौकरी से निकाले जाने का भय है।

अख़बार के कोरोना संक्रमण से मुक्त होने के बाद भी हॉकरों से अख़बार लेने में बहुत से लोग कतरा रहे हैं और उन्होंने अखबार लेना बंद कर दिया है। सरकार के ऊपर मीडिया में विज्ञापनों का करोड़ो रुपये बकाया है जिसकी जल्द मिलने की उम्मीद भी नही है। प्रिंट मीडिया 1200-1500 करोड़ रुपये तक घाटे में चल रही है।

अखबारों में सबसे ज्यादा विज्ञापन ई कॉमर्स, शिक्षण संस्थानों से जुड़े होते हैं जो इस कोरोना काल में अखबारों से दूरी बनाये हुए हैं जिसके कारण अखबारों के राजस्व और वितरण में बेहद ही नकारात्मक असर पड़ा है। बहुत से समाचार पत्र बन्द हो गये हैं।

छोटे समाचार पत्र किसी भी जगह की संस्कृति, समाज को परिभाषित करते हैं, वोट पर इनका गहरा असर रहता है। उनके द्वारा ही हम यह जान सकते हैं कि आज हमारे ग्राम प्रधान ने ग्रामीणों के साथ बैठक में क्या फैसला लिया, उनसे ही हमें पता चलता है कि डिग्री कॉलेज में प्राचार्य ने छात्र नेताओं की किन बातों को माना। आजकल इनका संचालन केवल वेब पॉर्टलों पर हो रहा है और वह भी स्थिति जल्द से जल्द सुधरने की उम्मीद लगाये बैठे हैं।

पत्रकारिता के क्षेत्र में शोध की ही कमी है जो इससे जुड़ी समस्याएं सामने नही आ पाती हैं ना उनका समाधान हो पाता है। इंजीनियरिंग, मेडिकल कालेजों की तुलना मीडिया संस्थानों की संख्या बहुत कम है।

वर्तमान परिस्थिति को देखते हुए समाचार पत्रों को अपना स्वरूप बदलने की जरूरत है । उन्हें पहले से ही पाठकों तक पहुंच चुकी अलग-अलग क्षेत्रों की खबर एकत्रित करने के बजाए खुद को एक ही विषय पर केंद्रित करना सीखना होगा। पाठकों की रूचि के अनुसार भी खबरों का चुनाव करना जरूरी है, यदि पाठकवर्ग में 45 वर्ष से अधिक उम्र के लोगों की संख्या अधिक है तो उन्हीं से सम्बंधित खबरों को ज्यादा जगह देनी चाहिए।

अखबार रोज़ आता है पर उसमें अपनों की खबर नही आती। समाचार पत्र जनता की आँख कान होते हैं। उसमें ऐसी खबरों को जगह मिलनी चाहिए जिनका सीधा-सीधा सम्बन्ध उस क्षेत्र के पाठकों से हो। लोकल पत्रकारों को ज्यादा अधिकार दिये जाने की आवश्यकता है क्योंकि क्षेत्र की समस्या को सैंकड़ों मील दूर बैठे लोगों से ज्यादा क्षेत्रीय व्यक्ति ज्यादा अच्छी तरह समझता है। नई प्रतिभाओं को मौक़ा देकर युवाओं को समाचार पत्रों की तरफ आकर्षित किये जाने के प्रयत्न किये जाने चाहिए। समाचार पत्रों में विज्ञापन सम्बन्धी शर्तों को भी आसान बनाये जाने की जरुरत है।

आसानी से उपलब्ध इंटरनेट, मोबाइल के कारण हर स्मार्टफोन वाला पत्रकार बन गया है और सस्ती लोकप्रियता पाने के लिये, समाज में नफ़रत फैलाने के लिए या अपने किसी निजी फ़ायदे के लिये वह फ़ेक न्यूज़ फैलाता है। फेक न्यूज़ पर लगाम तभी लग सकती है जब समाचार पत्रों की विश्वसनीयता बनी रहे।

कनाडाई मूल के प्रोफेसर रॉबिन जेफ्री ने कहा था मोबाइल जूते के बाद सबसे हानिकारक उपकरण है। जूतों ने लोगों को काम करने की वह शक्ति दी है जो वह बिना जूते के नही कर सकते अगर आपकों उन्हें नियंत्रित करना है तो उनके जूते छीन लो।

समाचार पत्र वर्षों से अपनी जगह और नाम पत्रकारिता के क्षेत्र में बनाये हुए हैं । उन्हें अपने नाम का प्रयोग समझदारी के साथ करना चाहिए। वेब पोर्टल, एप्स में सीमित खबर ही अपडेट करनी चाहिए और समाचार पत्रों के लिये रोमांच को बनाए रखते हुए पाठकों को अपनी ओर आकर्षित रखना चाहिए।

अब प्रिंट मीडिया को यह स्वीकार करना होगा कि उसका स्वर्णिम समय पीछे छूट गया है और नयी चुनोतियों के अनुसार उसे खुद को तैयार करना होगा।

“लेखक – हिमांशु जोशी, शोध छात्र पत्रकारिता, इंवर्टिस यूनिवर्सिटी, बरेली”।

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