- मनोज श्रीवास्तव
देहरादून : अपने कर्म के प्रति श्वांसों श्वांस सेवा हो कर्म की याद और श्वासों श्वांस की सेवा का बैलेंस होने से हमें बैलेसिंग प्राप्त होती है। इससे हम मेहनत और युद्ध करने से छूट जायेंगे। हम क्या, क्यों, कैसे इन प्रश्नो से मुक्त होकर प्रसन्न बने रहेंगे। सफलता हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है अनुभव करते रहेंगे। सभी प्रकार के प्रश्न समाप्त हो जायेंगें, पता नही क्या होगा, सफलता होगी या नही होगी, पता नही हम आगे चल सकेंगे या नही चल सकेंगे। यह पता नही का संकल्प निश्चय बुद्धि में बदल जायेगा। हम अनुभव करेंगे हमारी विजय पड़ी हुई है, इस निश्चत और नशा का सदैव अनुभव होता रहेगा।
कर्म की याद और सेवा के विभिन्न सब्जैक्ट के मार्क्स जमा होते जायेंगे और यह मिले हुए अंक फाईनल रिजल्ट में जुड़ जायेगें। वाणी द्वारा सेवा करने वाले के मार्क्स जमा होते हैं, स्व की सेवा के मार्क्स जमा होते हैं। यज्ञ की सेवा के मार्क्स जमा होते हैं अर्थात मनसा वाचा कर्मणा जैसे विभिन्न सब्जैक्ट के समान नम्बर होते हैं। और जितना नम्बर जमा होते हैं वो सभी फाईनल रिजल्ट में जुड़ जाते हैं।
स्व की सेवा अर्थात स्व को सम्पन्न और सम्पूर्ण बनाने का अटेन्शन रखना है। स्व की सेवा द्वारा पास विद आर्नर बनाना है, इसलिए जो ज्ञान प्राप्त किया उसको धारण करके अपने स्व की सेवा को सम्पन्न बनाना है। इसकी विधि है अटेन्शन और चैकिंग। स्व की चैकिंग करनी है दूसरो की नही करनी है। इसलिए कई व्यक्ति कहते है जब सेवा का चान्स मिलेगा तो करेंगे लेकिन चान्स दिया नही जाता चान्स लिया जाता है।
ट्रस्टी बनकर हम सदैव आगे बढ़ते रहते हैं। ट्रस्टी की छत्रछाया में पिछला हिसाब सूली से बदलकर कांटा बन जाता है। बड़ी बात छोटी हो जाती है। परिस्थितियां जरूर आयेंगी लेकिन ट्रस्टी की मदद से बड़ी परिस्थिति स्वस्थिति में बदल जाती है। ईश्वर का साथ मिलने से हम निश्चय से आगे बढ़ते रहते हैं । हर कदम में ट्रस्टी होना अर्थात सब कुछ तेरा होना और मेरापन समाप्त हो जाना। गृहस्थी अर्थात मेरा और ट्रस्टी अर्थात तेरा। तेरा होगा तो बड़ी बात छोटी हो जायेगी, मेरा होगा तो छोटी बात बड़ी हो जायेगी। तेरापन हल्का बनाता है और मेरापन भारी करता है। इसलिए जब भी भारीपन का अनुभव हो तो चैक करे कहां कहां मेरापन है। मेरे को तेरे में बदल दे तो उसी पल हल्के हो जायेंगे और सारा बोझ एक सेकण्ड में समाप्त हो जायेगा।
खाया पिया मौज किया और कुछ बचाया नही उसे समझदार नही कहते हैं। पुण्य कमाना जरूरी होता है, जिस प्रकार खाना खाने के लिए फुर्सत निकालते हैं उसी प्रकार पुण्य करने के लिए समय निकाले, चान्स मिले तो करे नही बल्कि हमें चान्स लेना है। समय मिलेगा नही समय निकालना है। इस विधि द्वारा जितना भी भाग्य की लकीर खींच सकते हैं। परमात्मा भाग्य विधाता और वरदाता है, उसने श्रेष्ठ ज्ञान की कलम हमको दे रखी है। इस कलम से हम जितनी लम्बी लकीर खींचना चाहे खीच सकते हैं।
अव्यक्त बाप दादा महावाक्य मुरली 06 नवम्बर, 1987
लेखक : मनोज श्रीवास्तव, सहायक निदेशक सूचना एवं लोकसम्पर्क विभाग उत्तराखंड