दुःख अकेले नही बल्कि वंशावली के साथ आता है
देहरादून : पवित्रता, हमारे सुख ,शांति और खुशी का आधार है। पवित्र रहने दृढ़ संकल्प कर्म स्तर पर ही नही बल्कि मन और वचन के स्तर पर भी पवित्रता जरूरी है। हमारा वास्तविक स्वरूप पवित्रता का है,लेकिन संग दोष के कारण अपवित्र बन जाते है। जहाँ पवित्रता है वहाँ सुख और खुशी शांति स्वतः है। पवित्रता सुख ,शांति का फाउंडेशन है। पवित्रता माता है और सुख, शांति , खुशी बच्चे है। इसलिये बच्चे स्वतः अपनी माता के पास रहते है।
दुनिया वाले सुख, शांति के पीछे- पीछे भाग रहे है। क्योकि उन्हें नही पता है कि सुख शांति का फाउंडेशन पवित्रता है। पवित्रता की निशानी खुशी है। सुख ,शांति का फाउंडेशन पता नही होने के कारण दुनिया वालो को अल्पकाल के लिये ही सुख,शांति प्राप्त हो पाती है।अर्थात अभी-अभी है और अभी-अभी नही है। सदाकाल की शांति पवित्रता के सिवाय असम्भव है।जो इस फाउंडेशन को अपना लेते है, उन्हें सुख -शांति के पीछे दौड़ नही लगानी पड़ती है बल्कि सुख -शांति उनके पीछे -पीछे दौड़ती है। सुख शांति पवित्र व्यक्ति के पास ऐसे चली आती है जैसे मां के पास बच्चा चला आता है।
आजकल लोग भाग दौड़ के जीवन मे मेहनत अधिक करते है लेकिन प्राप्ति कम होती है। यदि सुख भी होगा तब उसमें दुःख अवश्य मिला होगा। इनके अल्पकाल के सुख में चिन्ता और भय जरूर दिखाई देती है। जहाँ चिंता है वहाँ चैन नही हो सकता है और जहाँ भय है,वहाँ शांति नही मिल सकती है। अतः समस्त दुखो के कारण और निवारण का आधार पवित्रता है। इसीलिये जो पवित्रता को अपनाते है वे समस्या के समाधान स्वरूप बन जाते है। कोई भी समस्या इनके लिये डराने की जगह, खेलने वाले खिलोने के समान होती है।
जब पवित्रता होगी तब सर्व शक्तिमान का साथ भी होगा। जिसे हाँथी के पावँ के नीचे चींटी आ जाने पर दिखाई नही देती है वैसे ही सभी समस्याएं भी चींटी के समान बन जाती है। समस्या को खेल समझने से हमे खुशी मिलती है और बड़ी बात भी छोटी लगने लगती है। जहाँ पवित्रता सुख ,शांति की शक्ति बनती है वहाँ दुःख और अशांति की लहर नही आ सकती है। क्योकि शक्तिशाली के सामने दुःख और अशांति आने की हिम्मत नही कर सकती है। पवित्रता धारण करने से हम अनेक प्रकार के दुःख और अशांति से बच जाते है। जबकि पवित्रता के अभाव में कोई दुःख अकेले नही आता है बल्कि अपनी पूरी वंशावली लेकर आता है। पवित्रता का आधार त्याग,तपस्या और सेवा है। दृढ़ संकल्प करना एक तपस्या है। त्याग और तपस्या की विधि से हम वृद्धि को प्राप्त करते है।
सेवा हमारे खुशी का आधार है क्योंकि सेवा से हम भरपूर और संगठित महसूस करते है। सेवा का अर्थ एक ने कहा और दूसरे ने किया। मन ने कहा और बुद्धि ने किया। यदि एक ने कहा और दूसरे ने नही किया,यह असम्भव है। ऐसा करने से संगठन टूटता है। संगठन में सेवा का अर्थ है एक ने कहा, दूसरे ने पूरी उमंग, उत्साह से सहयोगी बनकर उसे प्रैक्टिकल में लाया। इसे ही आंतरिक संगठन की मजबूती कहते है। मन और बुद्धि के संगठित रहने पर सफलता अवश्य मिलती है। संगठन में तू, मैं मेरा, तेरा खिटपिट होती रहती है। लेकिन सेवा भाव से सभी बातें समाप्त हो जाती है।
पवित्रता धारण करके हम निर्विघ्न अवस्था मे तीव्र पुरुषार्थी बनकर उड़ती कलां का अनुभव करते है। बहुत काल से निर्विघ्न अवस्था मे रहने के कारण मजबूती आ जाती है। बार-बार विघ्न आने से हमारा फाउंडेशन कच्चा रह जाता है। लेकिन बहुत काल के अभ्यास से निर्विघ्न अवस्था का फाउंडेशन पक्का हो जाता है। फाउंडेशन पक्का होने के कारण हम स्वयं भी शक्तिशाली बनते है और दूसरों को शक्तिशाली बनाते है। हमे सदैव निर्विघ्न अवस्था मे रहना है। ऐसा नही समझना है कि विघ्न आया लेकिन चला तो गया। लेकिन इससे हमारा टाईम और एनेर्जी खराब हुआ। हमे स्वयं विघ्न विनाशक बनकर दुसरो को भी विघ्नविनाशक बनाना है।
अव्यक्त महावाक्य बाप दादा मुरली 22 मार्च 1986
लेखक : मनोज श्रीवास्तव, सहायक निदेशक सूचना एवं लोकसम्पर्क विभाग उत्तराखंड देहरादून
Discussion about this post