देहरादून : हमेशा लक्ष्य एक हो। अगर लक्ष्य बदलता रहेगा तो एकाग्रता कैसे रहेगी ? इससे विचारों की श्रंखला टूट जाएगी। अगर किसी का आज गुण और स्वभाव एक होता है, कल दूसरा होता है तो मन से स्थिर नही हो सकता है । ऐसे लोग अंतिम लक्ष्य निर्धारित नही कर सकते है।
लक्षण आते है लक्ष्य रखने से। लक्ष्य नही तो लक्षण भी नही आएंगे। अर्थात जैसा लक्ष्य वैसे लक्षण और जैसा चित्र वैसा चरित्र होगा। हमारे मन में और बुद्धि में जिसका भी चित्र रहेगा वैसा ही चरित्र बनने लगेगा। कोई गांधी , विवेकानन्द ,रामकृष्ण परमहंस, कोई अभिनेता ,अभिनेत्री का चित्र सामने रखते है फिर उनके चरित्र का अनुसरण करने की कोशिश करते है ।
एकलव्य ने द्रोणाचार्य का चित्र सामने रखकर तीर चलाना सीखा और अर्जुन से भी आगे निकल गया। इसलिए कहते है जैसा चित्र वैसा चरित्र। हमारे सामने भी श्रेष्ठ चित्र हो तो श्रेष्ठता चरित्र में आती जाएगी। लक्ष्य और लक्षण दो शब्द महत्वपूर्ण है। लक्ष्मण रेखा शब्द भी इसमे निहित है। लक्ष्मण अर्थात जिसके मन मे लक्ष्य रहे। लक्ष्मण के मन मे था सदा राम के साथ रहूँ। हमें भी सदैव लक्ष्य के साथ रहना है।
लक्ष्मण रेखा अर्थात मन मे जो लक्ष्य है ,उसकी मर्यादाओं की जो रेखा है उसका उल्लंघन करेंगे तो रावण रूपी विकार अपना बना लेंगे फिर विकारों में चले जायेंगे और आदि मध्य अंत दुख पाएंगे। इसलिये हमे अटेंशन रखना है कि हम संकल्प, बोल और कर्म के मर्यादाओं की रेखा के अंदर ही सदा रहे ताकि बुराईयां हमे अपनी तरफ न ले जाये।
अगर कोई सुधरता नही है तो उसका कारण यही है कि वो सुधरना नही चाहता है । ऐसे ही परिवर्तन करना चाहते है , योगी बनना चाहते है, श्रेष्ठ बनना चाहते है लेकिन बनते नही क्योंकि बनना ही नही चाहते ,क्योंकि लक्ष्य ही नही है। लक्ष्य नही तो वैसा पुरुषार्थ कैसे होगा ?
लक्ष्य एक हो, अटल अचल हो ,कभी हिले नही , लक्ष्य कभी भूले नही, धुन सवार हो जाये। करना है तो मुझे ये प्राप्त करना है। श्रेष्ठ मर्तबे के लिए अगर बढ़ते ही रहना बहुत ज़रूरी है। जो लक्ष्य को सामने रख कर, शक्तिशाली इच्छा शक्ति से बढ़ते चलते हैं ,कुछ भी हो आंधी हो या तूफान वे ही अपनी मन्ज़िल पर निश्चित रुप से पहुंच जाते है। अगर लक्ष्य बदलता है तो स्थिरता नही रहेगी, न मन, न बुद्धि स्थिर होगी।
एक लक्ष्य जीवन मे बना लिया कि हम इस लक्ष्य की कसौटी पर सारे निर्णय को चेक करते है। अगर हमारा संकल्प, बोल, कर्म लक्ष्य की तरफ ले जाने वाला है तो हम करते है अन्यथा बिल्कुल नही। जो भी बात हमें लक्ष्य से हटाएगी ,दूर करेगी उसे हम नही करेंगे तो चलते चलते धीरे धीरे एकाग्रता आती जाएगी। यह लक्ष्यात्मक एकाग्रता हमारी होनी चाहिए तभी हम मंजिल तक पहुंच सकेंगे।
लेखक : मनोज श्रीवास्तव, सहायक निदेशक सूचना एवं लोक सम्पर्क विभाग देहरादून
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