देहरादून : जब ड्रामा में सब कुछ फिक्स है तब हम क्यों पुरूषार्थ करें। कर्म से भाग्य बनता है, न कि भाग्य से भाग्य बनता है, इसलिए भाग्य बनाना है तब कर्म करना ही होगा। प्रायः लोग कहते कि जब भाग्य में लिखा होगा, तब हमें स्वतः ही सफलता मिल जायेगी, फिर कर्म करने से क्या फायदा है और हम कर्म क्यो करे? इसे इस रूप में नही समझा जा सकता है कि जब हमे फेल होना ही है तब हम क्यो पढ़े?
सब कुछ ड्रामा में फिक्स है लेकिन हमें यह नहीं पता है कि आगे क्या होने वाला है। हमें यह मानकर चलना होता है कि आगे अच्छा ही होगा। जैसा हम लक्ष्य रखते हैं वैसा ही हमें लक्षण मिलने लगता है। यदि हम असफलता का लक्ष्य रखेंगे तब असफलता मिलेगी और यदि सफलता का लक्ष्य रखेंगे तो सफलता मिलेगी। यदि हम जज बनने का लक्ष्य रखेंगे तभी जज बन पायेंगे।
क्या हम ऐसा भी सोच सकते है कि जब हमें खाना मिलना ही है, तब हम क्यो खाये? क्या बिना प्रयास के मुख में खाना चला जायेगा। यदि ऐसा है तब फिर हम इतना मेहनत करके कमाकर खाते क्यो है?
हम कह सकते है कि हमे इसलिये पढ़ना है क्योंकि यदि हमें जज बनाना होगा और हम भाग्य के भरोसे कर्म को करना छोड़ देते है और इसके बाद पढ़ना बंद कर देते है तब हम जज नही बन सकते है। अर्थात हम जिस चीज के भाग्य का अधिकारी थे उसे भी प्राप्त करने में चूक जाते है। हम जज बन सकते थे, पंरतु नही बन पाते है। अर्थात हमे पुरुषार्थ या कर्म अवश्य करना है क्योकि हमारा कर्म या पुरुषार्थ ही हमारा भाग्य बनाता है।
लेखक : मनोज श्रीवास्तव, सहायक निदेशक सूचना एवं लोकसम्पर्क विभाग उत्तराखंड
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