देहरादून : त्याग और भाग्य का अनिवार्य सम्बन्ध है। यदि त्याग है तब भाग्य अवश्य है। त्याग से भाग्य बनाने वाला भी अपना हो जाता है। त्याग से भाग्य को खीचने वाली कलम हमारे हाथ में आ जाती है, अर्थात हम जितना चाहें अपना भाग्य बना सकते हैं।
पुराने कमियों और कमजोरियों का त्याग न होने के कारण हमारा ईगो, देह अभिमान है। ईगो मिटाने के लिए मेहनत करनी पड़ती है। स्थूल त्याग कर भी लें परन्तु ईगो का त्याग एक लम्बी प्रक्रिया है, क्योंकि यह हमारे जीवन के प्रत्येक पक्ष से जुड़ा रहता है। जितना त्याग करेंगे उतना वर्तमान का भी भविष्य का भी भाग्य बनायेंगे। जो जितना त्याग करता है और जिस समय त्याग करता है उसी समय त्याग का रिटर्न उसके भाग्य के रूप में अवश्य मिल जाता है। त्याग भविष्य के अलावा प्रत्यक्षफल भी देता है।
जो न तो संकल्प और न ही स्वप्न में हो सके यदि वह प्राप्त हो जाये तब इसे भाग्य कहते हैं। जो चीज मेहनत से प्राप्त होती है, उसे भाग्य नहीं कहते हैं। भाग्य असंभव को संभव कर देता है और नाउम्मीदवार को उम्मीदवार बना देता है।
इसलिए चेक करें की संकल्प के रूप में हमने अपने व्यर्थ का त्याग कहां से कहां तक किया है। व्यर्थ संकल्पों से मन का मौन और व्यर्थ बोल से मुख का मौन त्याग कहलाता है। बच्चों के स्नेह में आकर माँ तन का त्याग करती है। जो संकल्प करेंगे वैसी स्मृति रहेगी, जैसी स्मृति रहेगी वैसा ही हमारे कर्म में समर्थी रहेगी।
चेकिंग करने से हमारे भीतर आटोमैटिकली चेंज आ जाता है। कम खर्च करने वाला मितव्ययी होता है। हमें मितव्ययी बनना है, समय, संकल्प, स्वांस और शक्ति में ज्यादा नहीं खर्च करना है। मुख्य रूप से संकल्प के खजाने को व्यर्थ नहीं गवांना है। ऐसा करने से हमारा संकल्प श्रेष्ठ और समर्थ बन जायेगा।
स्वांस को भी व्यर्थ नहीं गवाना है। ज्ञान के खजाने को यदि व्यर्थ गवां दिया, मनन नहीं किया, मनन के बाद जो खुशी प्राप्त होती है उसके अनुभव में स्थित होने का अभ्यास नहीं किया तो सब व्यर्थ चला जाता है, जैसे भोजन किया और हजम करने की शक्ति न हो तब सब व्यर्थ हो जाता है। ऐसे ही स्थूल धन का यदि सही उपयोग न किया जाए तब सब व्यर्थ चला जाता है। स्थूल धन का स्व और सर्व के कल्याण में लगाने पर एक का एक लाख गुणा प्राप्त होता है। लापरवाह व्यक्ति धन को व्यर्थ गवांते रहते हैं। धन को यर्थात् रूप से संभालने और लगाने से व्यर्थ से बचाव मिलता है। व्यर्थ से बचकर हम समर्थ बन जाते हैं। इसके लिए हमें लिकेज देखना होता है।
अव्यक्त महावाक्य बाप दादा मुरली 15 मार्च, 1972
लेखक : मनोज श्रीवास्तव, सहायक निदेशक सूचना एवं लोकसम्पर्क विभाग उत्तराखंड
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