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उत्तराखण्ड से पलायन रोकने में कारगर साबित होगा विकसित भारत जी राम जी अधिनियम

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posted on : दिसम्बर 28, 2025 4:39 अपराह्न
  • किरण कुमार शर्मा, वरिष्ठ पत्रकार, उत्तराखंड

देहरादून : उत्तराखंड जैसे हिमालयी राज्य में ग्रामीण रोज़गार केवल आर्थिक विषय नहीं है, बल्कि यह सामाजिक स्थिरता, सांस्कृतिक निरंतरता और पहाड़ के अस्तित्व से जुड़ा प्रश्न भी है। यहां की भौगोलिक विषमता, वर्षा आधारित खेती, सीमित औद्योगिक अवसर और मौसम की अनिश्चितता ने दशकों से गांवों की अर्थव्यवस्था को प्रभावित किया है। इसी कमजोरी का सबसे बड़ा दुष्परिणाम है, लगातार होता पलायन। ऐसे समय में विकसित भारत–रोज़गार और आजीविका के लिए गारंटी मिशन (ग्रामीण), यानी ‘जी राम जी’ अधिनियम, 2025 का लागू होना उत्तराखंड के लिए एक महत्वपूर्ण नीतिगत मोड़ के रूप में देखा जाना चाहिए। यह कानून केवल महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोज़गार गारंटी अधिनियम का स्थानापन्न नहीं है, बल्कि ग्रामीण विकास की सोच में एक संरचनात्मक बदलाव का संकेत देता है। रोज़गार की वैधानिक गारंटी को 100 दिनों से बढ़ाकर 125 दिन करना, समयबद्ध मज़दूरी भुगतान को अनिवार्य बनाना, पंचायतों को योजना निर्माण की केंद्रीय भूमिका देना और रोज़गार को टिकाऊ परिसंपत्ति निर्माण से जोड़ना। ये सभी प्रावधान उत्तराखंड की विशिष्ट परिस्थितियों में दूरगामी असर डाल सकते हैं। देखा जाए तो मनरेगा और जी राम जी में मूलभूत अंतर यह है क‍ि मनरेगा गरीबी उन्‍मूलन की दृष्‍ट‍ि से लागू क‍िया गया कार्यक्रम था, जबक‍ि जी राम जी विकसित भारत के सपनेे को पूरा करने की दिशा में उठाया गया कदम है।

उत्तराखंड में ग्रामीण श्रम की वर्तमान तस्वीर

उत्तराखंड में मनरेगा के तहत लगभग 16.12 लाख श्रमिक पंजीकृत हैं, जिनमें से 9.34 लाख श्रमिक पूर्ण रूप से सक्रिय हैं। यह आंकड़ा स्पष्ट करता है कि राज्य की एक बड़ी ग्रामीण आबादी की आजीविका सीधे तौर पर ग्रामीण रोज़गार गारंटी व्यवस्था से जुड़ी हुई है। पर्वतीय जिलों में, जहां निजी क्षेत्र के अवसर सीमित हैं, यह योजना केवल सहायक नहीं, बल्कि जीवन-रेखा का काम करती रही है। ‘विकसित भारत-जी राम जी’ कानून इन श्रमिकों के लिए आय-सुरक्षा को अधिक ठोस आधार प्रदान करता है। 125 दिनों की वैधानिक गारंटी का अर्थ है ग्रामीण परिवारों को पूरे वर्ष काम की बेहतर योजना बनाने का अवसर। इससे न केवल घरों में नकदी का प्रवाह बढ़ेगा, बल्कि स्थानीय बाजार, छोटे व्यापार और सेवाओं को भी नई गति मिलेगी।

भरोसे की नींव

पहाड़ में रोजगार की अनिश्चितता लंबे समय से सबसे बड़ी समस्या रही है। खेती मौसमी है, उत्पादन सीमित है और लागत अधिक। ऐसे में 125 दिनों का सुनिश्चित रोजगार केवल अतिरिक्त आमदनी नहीं, बल्कि भरोसे की नींव है। यह भरोसा ग्रामीण परिवारों को यह सोचने का अवसर देता है कि वे गांव में रहकर भी सम्मानजनक जीवन जी सकते हैं। कृषि और ग्रामीण श्रम के बीच संतुलन का प्रावधान भी उत्तराखंड के लिए विशेष महत्व रखता है। बुवाई और कटाई के दौरान 60 दिनों तक की समेकित विराम अवधि से यह सुनिश्चित होगा कि खेतों में श्रम की कमी न हो और किसान की उपज प्रभावित न हो। पहाड़ी क्षेत्रों में, जहां खेती सामूहिक श्रम पर आधारित होती है, यह संतुलन ग्रामीण जीवन की निरंतरता बनाए रखने में सहायक होगा।

पलायन पर लगेगा अंकुश

उत्तराखंड में पलायन अब केवल रोजगार की तलाश का मुद्दा नहीं रह गया है, बल्कि यह गांवों के सामाजिक जीवन के क्षरण की कहानी बन चुका है। विभिन्न अध्ययनों और सरकारी आकलनों के अनुसार प्रदेश में करीब 1700 गांव पूरी तरह जन–शून्य हो चुके हैं। इन गांवों में न स्कूलों की घंटी बजती है, न खेतों में हल की आवाज़ सुनाई देती है और न ही पर्व–त्योहारों की सामूहिक रौनक बची है। यह स्थिति केवल पहाड़ के खाली होने का संकेत नहीं, बल्कि राज्य की सांस्कृतिक, सामाजिक और पर्यावरणीय सुरक्षा के लिए भी गंभीर चेतावनी है।

‘विकसित भारत-जी राम जी’ कानून इस चिंताजनक परंपरा पर अंकुश लगाने की क्षमता रखता है। जब गांव में ही सुनिश्चित रोजगार, समय पर मज़दूरी और विकास से जुड़ी टिकाऊ परिसंपत्तियां बनेंगी, तो लोगों के पास गांव छोड़ने के बजाय गांव में टिके रहने का ठोस आधार होगा। 125 दिनों की वैधानिक रोज़गार गारंटी उन सीमांत परिवारों के लिए विशेष रूप से महत्वपूर्ण है, जो मजबूरी में महानगरों की ओर पलायन करते रहे हैं। यह कानून यह संदेश देता है कि गांव केवल रहने की जगह नहीं, बल्कि आर्थिक संभावना का केंद्र भी हो सकता है। यदि रोजगार, जल, सड़क और आजीविका से जुड़ा ढांचा गांव में मजबूत होता है, तो जन–शून्य हो चुके या होने की कगार पर खड़े गांवों में भी पुनर्जीवन की प्रक्रिया शुरू हो सकती है। इससे न केवल लोगों की वापसी संभव होगी, बल्कि नई पीढ़ी को गांव में भविष्य दिखाई देगा।

श्रम से परिसंपत्ति की ओर

इस अधिनियम की सबसे महत्वपूर्ण विशेषता यह है कि रोज़गार को टिकाऊ और उपयोगी परिसंपत्तियों के निर्माण से जोड़ना। जल संरक्षण, ग्रामीण अवसंरचना, आजीविका से जुड़ी संरचनाएं और जलवायु परिवर्तन के प्रभाव को कम करने वाले कार्य, ये सभी क्षेत्र उत्तराखंड के लिए विशेष रूप से प्रासंगिक हैं। पर्वतीय राज्य में जल संकट लगातार गहराता जा रहा है। चाल–खाल, जलस्रोत पुनर्जीवन, छोटी सिंचाई योजनाएं और वर्षा जल संचयन जैसे कार्य यदि योजनाबद्ध ढंग से किए जाते हैं, तो इससे खेती, पशुपालन और घरेलू जीवन को दीर्घकालिक सहारा मिलेगा। इसी तरह पैदल मार्ग, ग्रामीण सड़कें, गोशालाएं और सामुदायिक भवन न केवल रोजगार देंगे, बल्कि गांवों को रहने योग्य और आत्मनिर्भर बनाएंगे।

वित्तीय ढांचा और उत्तराखंड को राहत

पूर्वोत्तर और हिमालयी राज्यों के लिए 90:10 का वित्तीय साझेदारी मॉडल उत्तराखंड के लिए विशेष राहत लेकर आता है। इससे राज्य सरकार पर वित्तीय दबाव कम होगा और योजना के प्रभावी क्रियान्वयन की संभावना बढ़ेगी। प्रशासनिक व्यय की सीमा को छह से नौ प्रतिशत तक बढ़ाना भी व्यावहारिक कदम है, क्योंकि दुर्गम क्षेत्रों में कार्यान्वयन के लिए अतिरिक्त मानव संसाधन और तकनीकी सहायता अनिवार्य होती है।

प्रौद्योगिकी, पारदर्शिता और सामाजिक निगरानी

नया कानून प्रौद्योगिकी को बाधा नहीं, बल्कि सहायक माध्यम के रूप में देखता है। जियो–टैगिंग, रियल–टाइम डैशबोर्ड और सोशल ऑडिट जैसी व्यवस्थाएं पारदर्शिता बढ़ाएंगी। ग्राम सभा की भूमिका को सशक्त कर सामुदायिक निगरानी सुनिश्चित की गई है, जिससे योजना का लाभ वास्तविक पात्रों तक पहुंचे और भ्रष्टाचार पर अंकुश लगे।

उत्तराखंड के लिए अवसर की घड़ी

विकसित भारत–जी राम जी अधिनियम, 2025 उत्तराखंड के लिए एक ऐतिहासिक अवसर है। ग्रामीण अर्थव्यवस्था को सुदृढ़ करने का, पलायन की चुनौती से जूझने का और पहाड़ को फिर से जीवंत बनाने का। यह कानून श्रमिक को अधिकार देता है, गांव को संसाधन देता है और पंचायत को नेतृत्व की भूमिका सौंपता है। यदि 125 दिनों की रोज़गार गारंटी, टिकाऊ परिसंपत्ति निर्माण और पंचायत आधारित योजना निर्माण ईमानदारी से जमीन पर उतरता है, तो यह अधिनियम उत्तराखंड के गांवों को केवल श्रम का केंद्र नहीं, बल्कि आत्मनिर्भर विकास की प्रयोगशाला बना सकता है। यही वह राह है, जिससे जन–शून्य होते गांवों की परंपरा पर अंकुश लगेगा, पलायन की गति थमेगी और पहाड़ में रहने का भरोसा एक बार फिर मजबूत होगा।

  • लेखक : किरण कुमार शर्मा, वरिष्ठ पत्रकार, उत्तराखंड
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