- मनोज श्रीवास्तव
देहरादून : अभी नहीं तो कभी नहीं इस श्रेष्ठ स्लोगन के अनुसार कार्य करना है। जो भी श्रेष्ठ कार्य करना है वह अब करना है, तब और कब नहीं बल्कि अब। हर कार्य में हर समय यह याद रखना है अभी नहीं तो कभी नहीं। जिनको यह बात स्मृति में रहती है वह कभी भी समय, संकल्प व कर्म को वेस्ट नहीं होने देंगे और सदा जमा करते रहेंगे। बुरे कर्म की तो बात ही नहीं है लेकिन व्यर्थ कर्म भी धोखा दे देते हैं। इसलिये हर सेकेंड के हर संकल्प का महत्व जानकर श्रेष्ठ कर्म को करते रहना है।
इससे हमारे जमा का खाता सदैव भरता जायेगा, हमेशा चेक करें जितना जमा करना चाहिए उतना जमा कर रहे हैं अथवा नहीं। इस के लिये इस बात पर अंडर लाइन कर लेना चाहिए कि एक सेकेंड भी हमारा संकल्प व्यर्थ न जाय, क्योंकि व्यर्थ खत्म हो जायेगा तब हम स्वतः समर्थ बन जायेंगे। धीरे-धीरे हम मालामाल हो जायेंगे। जैसे पहले चलते थे, रहते थे और पहनते थे उसकी तुलना में अब अधिक रायल हो जायेंगे। अभी सदा ही स्वच्छ रहते हैं जबकि पहले कपड़े भी मैले पहनते थे। अभी हम अंदर और बाहर दोनों विधि से स्वच्छ हो गये हैं, इससे सबकुछ बदल जाता है, परिवर्तन हो जाता है, यदि पहले की शक्ल और अक्ल को देंखे और अभी देखें तो फर्क स्पष्ट पता लग जायेगा।
इसके लिये हमें पवित्रता, धारण करना होगा। लेकिन पवित्रता पर शुरू से ही विघ्न पड़त आये हैं लेकिन पवित्रता माया की अनेक विघ्नों से बचने की छत्र-छाया है। पवित्रता को सुख शांति का जननी कहा जाता है। किसी भी प्रकार की अपवित्रता, दुख और अशांति का अनुभव कराती है, इसलिए चेक करें कि किसी भी समय हम दुख और अशांति का लहर अनुभव करते हैं अथवा नहीं। इसकी बीज अपवित्रता में ही है, अर्थात यदि किसी भी कारण से दुख का जरा भी अनुभव होता है तो इसका अर्थ है सम्पूर्ण पवित्रता में कमी है। जहां पवित्रता की शक्ति है वहां कभी भी दुख के नजारे में भी दुख का अनुभव नहीं करेंगे। इसके कारण हमारे मुख ओर संकल्प में यह शब्द नहीं निकलेगा कि इस बात के कारण व इस व्यक्ति के व्यवहार के कारण मुझे दुख होता है। यदि ऐसा होता है तो इसे पवित्रता के बोल नहीं कहेंगे।
पवित्रता की शक्ति आत्मिक शक्ति को बढ़ा देती है जिसे साइलेंस की शक्ति कहते हैं। आज शरीर के डॉक्टर्स एवं हास्पिटल्स में भीड़ बढ़ता जाता है फिर भी डाक्टर को फुर्सत नहीं है और हास्पिटल में स्थान नहीं है। इससे सदा रोगियों की क्यू लगी रहती है। ऐसी परिस्थिति बन जाती है कि हास्पिटल व डाक्टर पास जाने का, दवाई करने का चाहते हुए भी नहीं जा सकेंगे और मेजार्टि निराश हो जायेंगे कि अब क्या करेंगे अथवा जब दवा से निराश हो जायेंगे तब कहा जायेंगे। ऐसे रोगी रूहानी डाक्टर्स या आत्मिक स्वरूप के डाक्टर्स के पास क्यू लगायेंगे। वे दया व दुवा मांगते रहेंगे कि हमारे उपर दया करो।
स्नेह के बंधन में कायदे का बांध तोड़ कर आ जायेंगे। फिर भी कायदे में ही फायदा है क्योंकि जो कायदे से आते हैं उन्हें ज्यादा मिलता है जो लहर में लहराकर आते हैं तो समय के अनुसार उतना ही मिलता है। आत्मिक स्थिति में रहने से बंधन मुक्त परामात्मा भी बंधन में आ जाता है। ऐसे कभी नहीं सोचना कि कहाँ तक युद्ध करें, यह तो सारे जिंदगी की बात है। सेना में युद्ध करने वाले जो योद्धे होते हैं उनका स्लोगन होता कि हारना व पीछे लौटना कमजोरों का काम है, योद्धा अर्थात् मरना और मारना। हम भी श्रेष्ठ योद्धा डरने वा पीछे हटने वाले नहीं, सदा आगे बढ़ते विजयी बनने वाले हैं ।
अव्यक्त बापदादा मुरली महावाक्य 14 नवम्बर 1987
लेखक : मनोज श्रीवास्तव, सहायक निदेशक सूचना एवं लोकसम्पर्क विभाग उत्तराखंड