posted on : मार्च 15, 2025 9:52 पूर्वाह्न
हरिद्वार : होली का त्योहार पूरे भारत में उल्लास और उमंग के साथ मनाया जाता है, लेकिन उत्तराखंड की पहाड़ियों में मनाई जाने वाली कुमाऊँनी होली की अपनी ही एक अनूठी परंपरा है। यह सिर्फ रंगों का त्योहार नहीं, बल्कि महीनों तक चलने वाला एक सांस्कृतिक उत्सव है, जिसमें संगीत, नृत्य, भजन और आपसी मेलजोल का विशेष महत्व है। यहाँ की होली केवल आनंद और उमंग तक सीमित नहीं है, बल्कि यह हमारे स्वास्थ्य और पर्यावरण के लिए भी बहुत लाभकारी मानी जाती है।
होली की अनूठी परंपरा : संगीत और सौहार्द का पर्व
कुमाऊँ में होली मनाने की परंपरा सदियों पुरानी है। यहाँ यह त्योहार तीन प्रमुख रूपों में मनाया जाता है—बैठकी होली, खड़ी होली और महिला होली।
- बैठकी होली – यह होली माघ महीने से ही शुरू हो जाती है, जिसमें लोग समूह बनाकर घरों, मंदिरों और सार्वजनिक स्थलों में बैठते हैं और शास्त्रीय रागों पर आधारित होली गीत गाते हैं।
- खड़ी होली – इस होली में लोग पारंपरिक वेशभूषा में ढोल-दमाऊँ और अन्य वाद्ययंत्रों के साथ नृत्य करते हैं और एक-दूसरे को गुलाल लगाकर शुभकामनाएँ देते हैं।
- महिला होली – इसमें महिलाएँ समूह में एकत्र होकर पारंपरिक लोकगीत गाती हैं और रंगों के साथ इस त्योहार को धूमधाम से मनाती हैं।
डॉ. अवनीश उपाध्याय कहते हैं, “कुमाऊँनी होली केवल रंगों तक सीमित नहीं रहती, बल्कि यह एक महीनों चलने वाला सांस्कृतिक उत्सव बन जाती है, जिसमें संगीत और मेलजोल का प्रमुख स्थान होता है। संगीत हमारे मानसिक स्वास्थ्य के लिए बहुत लाभदायक है और यह तनाव कम करने में मदद करता है।”
स्वास्थ्य के लिए वरदान है पहाड़ी होली
आधुनिक समय में होली के दौरान रासायनिक रंगों का अधिक उपयोग होने लगा है, जो त्वचा, आंखों और सांस की बीमारियों का कारण बनते हैं। लेकिन पहाड़ों में पारंपरिक रूप से बनाए गए प्राकृतिक रंगों का ही उपयोग किया जाता है।
- टेसू के फूलों से बना रंग त्वचा के लिए बेहद फायदेमंद होता है और इसमें एंटीसेप्टिक गुण होते हैं।
- हल्दी और चुकंदर के रंग त्वचा को निखारने के साथ-साथ एलर्जी से बचाव करते हैं।
- नीम के पत्तों का उपयोग त्वचा के संक्रमण को दूर करने में सहायक होता है।
डॉ. अवनीश उपाध्याय बताते हैं, “रासायनिक रंगों के प्रयोग से त्वचा संबंधी समस्याएँ और एलर्जी हो सकती हैं। वहीं, आयुर्वेद के अनुसार टेसू, हल्दी और नीम से बने रंग त्वचा को पोषण देते हैं और हानिकारक बैक्टीरिया को नष्ट करने में मदद करते हैं।”
पर्यावरण संरक्षण में भी महत्वपूर्ण योगदान
- कुमाऊँ की होली केवल आनंद और स्वास्थ्य तक सीमित नहीं रहती, बल्कि इसका पर्यावरण संरक्षण से भी गहरा संबंध है।
- लकड़ियों की अनावश्यक कटाई रोकने के लिए होलिका दहन में सिर्फ सूखी लकड़ियों का प्रयोग किया जाता है, जिससे जंगलों को नुकसान नहीं पहुँचता।
- प्राकृतिक रंगों का उपयोग करने से जल स्रोतों में रासायनिक प्रदूषण नहीं फैलता।
- वृक्षों और प्रकृति के सम्मान की परंपरा इस पर्व का अहम हिस्सा है, जिससे पारिस्थितिकी संतुलन बनाए रखने में मदद मिलती है।
इस विषय पर डॉ. अवनीश उपाध्याय कहते हैं, “हमारी परंपराएँ पर्यावरण के प्रति हमारी जिम्मेदारी को भी दर्शाती हैं। कुमाऊँनी होली में होलिका दहन के लिए केवल सूखी लकड़ियों का प्रयोग किया जाता है, जिससे जंगलों पर कोई अतिरिक्त दबाव नहीं पड़ता और पेड़ों की अनावश्यक कटाई से बचाव होता है।”
सामाजिक सौहार्द और मानसिक शांति का संदेश
कुमाऊँनी होली का एक और बड़ा महत्व यह है कि यह समाज को जोड़ने का काम करती है। पर्व के दौरान लोग आपसी भेदभाव भुलाकर एक-दूसरे को रंग लगाते हैं और गले मिलते हैं। संगीत से भरी यह होली न केवल आनंद देती है, बल्कि यह मानसिक शांति और तनाव मुक्ति का भी बेहतरीन माध्यम है। डॉ. अवनीश उपाध्याय कहते हैं, “होली मेल-जोल और भाईचारे का त्योहार है। जब लोग एक साथ बैठकर संगीत और गीतों का आनंद लेते हैं, तो यह मानसिक शांति और सामाजिक समरसता को बढ़ावा देता है।”
परंपरागत होली अपनाएँ, स्वास्थ्य और पर्यावरण बचाएँ – डॉ अवनीश उपाध्याय
कुमाऊँनी होली केवल एक पर्व नहीं, बल्कि संस्कृति, संगीत, पर्यावरण संरक्षण और स्वास्थ्य लाभ का एक अद्भुत संगम है। प्राकृतिक रंगों और संगीत से सजी यह होली न केवल परंपराओं को जीवंत रखती है, बल्कि वैज्ञानिक दृष्टि से भी अत्यंत लाभदायक है। यदि पूरे भारत में कुमाऊँनी होली की तरह प्राकृतिक और पारंपरिक रूप से होली मनाई जाए, तो यह न केवल पर्यावरण के लिए लाभदायक होगी, बल्कि हमारी सेहत और समाज के लिए भी एक बेहतरीन पहल होगी। डॉ. अवनीश उपाध्याय सभी को संदेश देते हैं, “इस बार होली पर हम सब संकल्प लें कि प्राकृतिक रंगों का उपयोग करेंगे, पर्यावरण को संरक्षित रखेंगे और इस पर्व को सौहार्द और मेल-जोल का उत्सव बनाएँगे।”


