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पलायन की समस्या पर एक उम्मीद की किरण है कोरोना महामारी

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posted on : जून 11, 2020 4:07 अपराह्न

● कोरोना की वजह से बेरोजगार हो लाखों प्रवासी अपने जन्मस्थान वापस लौटे हैं।

● आज़ाद भारत में जैसे-जैसे परिवहन और संचार साधन उन्नत हुए थे पलायन की समस्या गम्भीर होते गयी।

● भारतीय अर्थव्यवस्था में कृषि का योगदान कम होने के कारण ग्रामीण क्षेत्रों से पलायन की समस्या गम्भीर होते गयी।

● कोरोना से त्रस्त भारतीय अर्थव्यवस्था को पटरी में लाने के लिए गांधी जी के स्वदेशी अपनाओ और मोदी जी के लोकल पर वोकल विचारों पर चलना होगा।

नैनीताल (हिमांशु जोशी): चीन के वुहान शहर से शुरू हुयी कोरोना महामारी दिसंबर 2019 के अंत में पूरे विश्व में फैलनी शुरू हो गयी थी। भारत के केरल राज्य में 30 जनवरी 2020 को कोरोना का पहला मामला सामने आया था। कोरोना की गम्भीरता को देखते हुए प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी जी ने 22 मार्च को जनता कर्फ़्यू की घोषणा की थी। उसके बाद भारत में लॉकडाउन की शुरुआत हुई पहला लॉकडाउन 21 दिन का था जो 24 मार्च से शुरु हुआ । इसमें देश की अंदर होने वाली हर तरह की धार्मिक, आर्थिक, मनोरंजन गतिविधियों पर विराम लगा दिया गया था। सार्वजनिक परिवहन के सारे साधन बन्द कर दिए गए।

उसके बाद दूसरा लॉकडाउन 19 दिन दिन का था जो 15 अप्रैल से शुरू हुआ। बेरोजगारी और फ़ेक न्यूज़ की वजह से बहुत से प्रवासी पैदल ही अपने घर लौटने लगे। तीसरा और चौथा लॉकडाउन क्रमशः 4 और 18 मई से शुरू हुए दोनों की अवधि दो-दो हफ्ते की थी। प्रवासियों को उनके घर वापस लाने के लिए विशेष ट्रेनें चलायी गयी। कोई भी देश अपनी आर्थिक गतिविधियों को अधिक समय तक नही रोक सकता। धीरे-धीरे कोरोना के साथ जीने की आदत डालते हुए सभी रूकी गतिविधियों को फिर से शुरू करने की शुरुआत हुयी। 01 जून से पांचवा लॉकडाउन चल रहा है जिसकी अवधि 30 दिन की है। भारत सरकार ने कोरोना संक्रमण को सामुदायिक संक्रमण बनने से रोकने के बहुत प्रयास किए पर जनता ने इसे गम्भीरता से नही लिया। 19 मई 2020 को संक्रमितों का आंकड़ा एक लाख पार कर गया और 3 जून को देखते ही देखते यह आंकड़ा दो लाख की संख्या पार कर गया।

लॉकडाउन की शुरुआत के बाद से ही गरीब भारत की बहुत सी दर्दनाक तस्वीरें हमारे सामने आयी जिसमें मज़दूरों की नींद में रेलवे पटरी पर लेटने के बाद ट्रेन से कटकर हुयी मौत और उनकी बिखरी हुई चप्पलों की तस्वीर सबसे मुख्य थी। घर लौटने के लिये एकत्रित हुए प्रवासियों की पुलिस पर पथराव की खबरें आयी। राज्यों ने इतनी ज्यादा संख्या में घर लौटते प्रवासियों को रोकने के लिए अपनी सीमाएं तक सील कर दी। मज़दूरों की सड़क हादसों में मौत की तस्वीरें हो या घर वापसी के लिए सैकड़ों किलोमीटर पैदल चल पैरों में पड़े छालों की तस्वीर। साइकिल में अपने पिता को बैठाकर घर वापस लायी बेटी की तस्वीर और रेलवे स्टेशन पर अपनी मृत माँ के पल्लू से खेलते बच्चे की तस्वीर। सबने हमें विचलित किया और विकासशील भारत की सबसे दर्दनाक तस्वीर हमारे सामने ला कर हर भारतीय को अंदर तक झकझोर दिया। सरकार के साथ देश के बहुत से लोग भी कलयुग के भगवान बन कर प्रवासियों की मदद के लिये आगे आये।

पलायन एक समस्या

एक महामारी ने देश की बुनियाद को कैसे हिला दिया इसको जानने के लिए हमें प्रवासियों की समस्याओं को समझना होगा। सालों से चली आ रही पलायन की समस्या के कारण ही आज भारत इस स्थिति से गुज़र रहा है। जब किसी की गिनती अपने जन्मस्थान से अलग स्थान पर हो तो उसे प्रवासी कहा जाता है। अंग्रेजो के समय भारत में संचार और परिवहन के अच्छे साधन नही थे। स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद जैसे-जैसे परिवहन और संचार के साधनों में सुधार हुआ भारत में पलायन की शुरुआत भी हो गयी। 1960 के आस पास अच्छे जीवन स्तर की तलाश में कई भारतीय इंजीनियर, डॉक्टर अमेरिका, कनाडा और इंग्लैंड चले गए। 1970 के आसपास खाड़ी देशों में अकुशल श्रमिकों की आवश्यकता हुई तो भारत से बहुत से लोग वहां चले गए। 1990 के आसपास बहुत से भारतीय न्यूज़ीलैंड, ऑस्ट्रेलिया, जर्मनी जैसे देशों में जाकर बस गए।

आज़ादी के बाद बढ़ती आबादी के लिए कृषि योग्य भूमि कम पड़ने लगी तो ग्रामीण गाँव छोड़ने लगे। तीस-तीस किलोमीटर पैदल चल विद्यालय जाने वाले छात्र युवा होकर रोज़गार की तलाश में प्रवासियों की गिनती में शामिल होते चले गए। पंजाब में खेती और उद्योगों के लिए श्रम शक्ति की जरूरत थी। चाय बागानों में और चीनी उत्पादन के लिए अकुशल श्रमिकों की जरूरत थी। प्रवासियों की यह संख्या समय के साथ बढ़ती गयी। वर्ष 2001 की गणना के अनुसार भारतीय आबादी की तीस प्रतिशत आबादी प्रवासी थी। कोरोना के बाद लाखों की संख्या में प्रवासी वापस अपने जन्मस्थान आ चुके हैं । वर्षों बाद भी प्रवासी बनने के कारण जस के तस हैं। उनके बिना उद्योगों का फिर से चलना मुश्किल होगा। यह प्रवासी ही गरीबी से लड़ता है और अपने परिवार का पालन पोषण करता है। अर्थव्यवस्था को प्रवासियों की ही आवश्यकता है। सांख्यकी एवम कार्यक्रम कार्यान्वयन मंत्रालय भारत सरकार के आंकड़ों के अनुसार भारत के सबसे ज्यादा पांच गरीब राज्य बिहार, उत्तर प्रदेश, मणिपुर, झारखंड और असम हैं।

कृषि में पिछड़कर लड़खड़ाती भारतीय अर्थव्यवस्था

ताज़ा आंकड़ों के अनुसार भारतीय अर्थव्यवस्था में कृषि का योगदान मात्र पन्द्रह प्रतिशत रह गया है। वर्ष 1967 में भारत में हरित क्रांति की शुरुआत हुई थी। इससे कृषि क्षेत्र में विकास हुआ था। उन्नतशील बीज, बेहतरीन सिंचाई सुविधा , कृषि में नयी तकनीक, बहुफसली फसल, कृषि के लिए मृदा परीक्षण इसकी विशेषता थी। जैविक खेती को बढ़ावा देना चाहिए जिससे भूमि की उर्वरक क्षमता बनी रहे। पर कृषि में नए प्रयोग होने बन्द हो गए हैं। कृषि आधारित विश्वविद्यालयों की हालत खराब होते चली गयी है। कर्नाटक और आंध्र प्रदेश की तरह ज़ीरो बजट खेती जैसे प्रयोग और राज्यों में नही किए जा रहे हैं। कृषि कुछ फसलों तक ही सीमित रही। पिछले कुछ वर्षों से पानी की समस्या बढ़ती गयी है। इसके लिए वर्षा जल संचयन को बढ़ावा दिया जाना चाहिए और भू जल पर निर्भरता कम होनी चाहिए। राष्ट्रीय किसान नीति 2007 में जल संरक्षण को लेकर कहा गया है कि एक जल साक्षरता अभियान को शुरू किया जाएगा पर ग्रामीण इलाकों में वर्षा जल संचयन को लेकर जागरूकता ना के बराबर है। कई राज्य अपने प्राकृतिक संसाधनों का सही प्रयोग करने में नाकामयाब रहे हैं और इन संसाधनों में धनी होने के बाद भी पलायन की समस्या से जूझ रहे हैं। इनमें झारखंड और उत्तराखंड प्रमुख हैं।

यूएन के अनुसार जंगल गरीबी हटाने में मदद कर सकते हैं

लकड़ी से बने सामान, जंगल में मिलने वाली औषधियां, रस्सियां बनाना, मशरूम उत्पादन, शहद और फलों का व्यापार कुछ ऐसे कार्य हैं जिनको करने के बाद जंगल से भी अपनी आजीविका चलायी जा सकती है। जंगल का प्रयोग करने के लिए ज्यादा अधिकार दिए जाने की आवश्यकता है। अधिक से अधिक वृक्षारोपण पर ज़ोर दिया जाना चाहिए। ऐसे एनजीओ बनाने चाहिए जो ग्रामीणों को गरीबी से लड़ने के लिए जागरूक करें।

पलायन की वजह से नगरों की स्थिति भी खराब हुई है। एसोचेम के आंकड़ों के अनुसार यूपी से साल 2001 से 2011 के बीच करीब 59 लाख लोगों ने पलायन किया। यूएन के अनुसार साल 2020 के अंत तक विश्व की पचास प्रतिशत आबादी शहरों में रहने लगेगी। औद्योगीकरण और आधुनिकता इसकी मुख्य वज़ह हैं। नगरों में फुटपाथ पर कब्ज़ा, पानी और बीजली की समस्या आम है। पीने का साफ पानी उपलब्ध नही है। लोगों के पास रहने की जगह नही है। जगह-जगह मनुष्यों का मल भरा रहता है। वर्ल्ड बैंक के अनुसार मुम्बई की आधी आबादी झुग्गियों में रहती है।

औद्योगीकरण भारत को गर्त में ले जा रहा है। कोरोना महामारी नही आती तो शायद यह कभी पता नही चलता कि इतने प्रवासी सिर्फ सांस लेने लायक स्थिति में ही शहरों में रह रहे हैं। मेट्रो और लोकल ट्रेन में लद कर रोज़ खुद को ढोने वाले प्रवासियों के पास सिर्फ एक महीने भी कोरोना जैसी महामारी से लड़ने की शक्ति नही है। इसे आज तक की सरकारों की असफलता ही कहा जायेगा कि वह पलायन को रोकने में नाकामयाब रहे।

औद्योगीकरण पर महात्मा गाँधी जी के विचार

महात्मा गाँधी जी ने अपने बीज ग्रन्थ ‘हिन्द स्वराज्य’ में औद्योगीकरण की ओर इशारा करते हुए कहा था कि मशीनें यूरोप को उजड़ने में लगी हैं और वहाँ की हवा अब हिंदुस्तान में चल रही है। बम्बई के मिलों में जो मज़दूर काम करते हैं वह गुलाम बन गए हैं। जब ये सब चीज़े यन्त्र से नही बनी थी तब हिंदुस्तान क्या करता था। स्वदेशी पर मोदीजी ने लोकल पर वोकल का विचार दिया है। गाँधी जी ने शताब्दी पूर्व ही इस बात को समझ लिया था। “यंग इंडिया” में उन्होंने कहा था कि मैं भारत के जरूरतमंद करोड़ो निर्धनों द्वारा काते और बुने गये कपड़ो को खरीदने से इंकार करना और विदेशी कपड़ों को खरीदना पाप समझता हूँ, भले ही वह भारत के हाथ के कते कपड़ो की तुलना में कितने ही बढ़िया किस्म का हो।

आज हम चीन के बने इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों और अन्य सामानों का विरोध कर रहे हैं पर हम भारतीय उत्पादों की गुणवत्ता पर प्रश्न भी उठाते हैं। हमें इस पर गाँधी जी की कही इन बातों को समझना होगा। गुणवत्ता से समझौता कर अपने आज़ाद भारत को चीन और अमेरिका जैसे शक्तिशाली देशों से आगे निकालना होगा। उत्पादों की गुणवत्ता तो एक बार विकसित राष्ट्र बनते ही खुद बढ़ जायेगी। ग्रामीण क्षेत्रों के विकास और बेरोजगारी दूर करने के लिए सरकार द्वारा बहुत सी योजनाएं चलाई गई हैं।

वर्ष 1999 में स्वर्णजयंती ग्राम स्वरोजगार योजना शुरू की गयी इसी योजना को बाद में राष्ट्रीय ग्रामीण आजीविका मिशन वर्ष 2011 और दीन दयाल उपाध्याय ग्रामीण कौशल योजना वर्ष 2014 कहा गया। जिसका उद्देश्य ग्रामीण गरीब परिवारों को देश की मुख्यधारा से जोड़ना और विभिन्न कार्यक्रमों के जरिए उनकी गरीबी दूर करना है।

वर्ष 2000 में प्रधानमंत्री ग्राम सड़क योजना शुरू की गई थी। गांवों के विकास में सड़क की महत्वत्ता को देखते हुए इसका उद्देश्य ग्रामीण इलाकों में 500 या इससे अधिक आबादी वाले सड़क संपर्क से वंचित गांवों को बारह मासी सड़क से जोड़ना है।

2001 में सम्पूर्ण ग्रामीण स्वरोजगार योजना को शुरू किया गया जिसका उद्देश्य ग्रामीण क्षेत्रों में खाद्य सुरक्षा के साथ-साथ दिहाड़ी रोज़गार के अवसर बढ़ाने के लिये स्थायी सामुदायिक परिसम्पत्तियों का निर्माण करना है।

2005 में महात्मा गाँधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोज़गार गारंटी अधिनियम जिसे मनरेगा नाम से जाना जाता है को शुरू किया गया।इस योजना में प्रत्येक वित्तीय वर्ष में किसी भी ग्रामीण परिवार के वयस्क सदस्यों को 100 दिन का रोज़गार उपलब्ध कराया जाता है।

कृषि एवं संबद्ध क्षेत्रों के अधिक समग्र एवं समेकित विकास को सुनिश्चित करने के लिए कृषि जलवायुवीय, प्राकृतिक संसाधन और प्रौद्योगिकी को ध्यान में रखते हुए गहन कृषि विकास करने के लिए राज्यों को बढ़ावा देने हेतु एक विशेष अतिरिक्त केंद्रीय सहायता योजना की शुरूआत भारत सरकार ने वर्ष 2007-08 राष्ट्रीय कृषि विकास योजना की शुरूआत की थी जो तब से प्रचलन में है।

लोकल पर वोकल

अब जब प्रवासी अपने अपने राज्यों में वापस आ चुके हैं तो वहाँ की सरकारों को यह प्रयास करना चाहिए कि उनकी कुशल और अकुशल श्रमिक शक्ति अब उनके राज्यों में ही रहे और खुद प्रवासियों को भी ग्रामीण क्षेत्रों में रोज़गार के अवसर ढूंढने होंगे।

खादी ग्रामोद्योग को बढ़ावा दिया जाना चाहिए पर इसके लिये सिर्फ ट्विटर पर हैशटैग #localforVocal अभियान चलाने से कुछ नही होगा देश की जनता को भी खादी वस्त्रों को अपनाना होगा। ग्रामीण कुटीर उद्योगों को बढ़ावा दिया जाना चाहिए। यह वह उद्योग हैं जिन्हें घर के सदस्यों द्वारा सीमित संसाधनों में खुद शुरू किया जा सकता है। अगरबत्ती, नमकीन, मोमबत्ती, मसाले, पापड़ , चूड़ी , साबुन , सॉस और झाड़ु बनाने के कार्य इसमें शामिल है। फर्नीचर बनाकर और टेलरिंग करके भी अच्छे पैसे कमाए जा सकते हैं। बेकरी का काम शुरू कर अन्य लोगों को भी रोज़गार दिया जा सकता है। ग्रामीण क्षेत्रों में स्वच्छ पीने के जल की कमी है वाटर आरोह का प्लांट लगा कर भी अच्छा धन कमाया जा सकता है। शहरों में जगह की कमी होने के कारण उत्पादों के भंडारण के स्थान की कमी है और ग्रामीण क्षेत्रों में गोदाम बनाकर अच्छा धन अर्जित किया जा सकता है ।

होटल क्षेत्र में बाहर काम कर रहे प्रवासी खुद के ढाबे खोल अपने मालिक खुद बन सकते हैं। मुर्गी और मत्स्य पालन स्वरोज़गार के सबसे उत्तम साधनों में से एक है। दुग्ध उत्पादन के लिए पशु पालन कर स्वावलंबी बना जा सकता है। भारत सरकार को नवीकरणीय ऊर्जा के विकास पर कार्य करना होगा। नवीकरणीय ऊर्जा वह है जिसे प्रकृति में नियमित रूप से बार-बार इस्तेमाल किया जा सकता है और यह प्रकृति में बहुतायत मात्रा में उपलब्ध है।

इरोना ( अंतराष्ट्रीय नवीकरणीय ऊर्जा एजेंसी ) अंतराष्ट्रीय स्तर पर नवीकरणीय ऊर्जा के विकास पर कार्य करती है और भारत में यह कार्य नवीन और नवीकरणीय ऊर्जा मंत्रालय का है। अमेरिका और चीन ने नवीकरणीय ऊर्जा के संसाधनों पर तेज़ी से कार्य किए हैं और इनका प्रयोग कर रोज़गार के बहुत से नए अवसर पैदा किए हैं। पवन ऊर्जा से चलने वाली हवा टरबाइन अपने खेतों में लगवाकर किसान उससे अच्छा किराया कमा सकते हैं और इससे फसलों में भी कोई व्यवधान नही आता है। हवा टरबाइन के टेक्नीशियनों की भी बहुत आवश्यकता है। इस क्षेत्र में युवाओं के लिये रोज़गार के बहुत से अवसर हैं।

जलशक्ति ऊर्जा जो नदी और बहते पानी से उपलब्ध होती है यह भी ग्रामीण क्षेत्रों में रोज़गार का अच्छा साधन साबित हो सकती है। इईएसआई जो पर्यावरण पर अध्ययन करने वाली एक अमेरिकी संस्था है के अनुसार चीन में जलशक्ति ऊर्जा का सही उपयोग कर रोज़गार पाने वालों की संख्या तीन लाख आठ हज़ार है वही भारत में इसकी संख्या तीन लाख सैंतालीस हज़ार है।

भूतापीय ऊर्जा जिसे पृथ्वी के अंदर संग्रहित ताप से प्राप्त किया जाता है उसमें चीन में वर्तमान समय में 2500 लोगों ने रोज़गार प्राप्त किया है और भारत में यह संख्या ना के बराबर है।

बायोगैस जिसे जीवाश्म ईंधन से बनाया जा सकता है और जो बहुत ही सस्ते दामों में उपलब्ध है। इईएसआई के अनुसार चीन में उससे 1,45,000 रोज़गार उपलब्ध हैं और भारत में उससे सिर्फ 85,000 रोज़गार उपलब्ध हैं।

सौर ऊर्जा का उपयोग चीन ने बहुतायत मात्रा में किया है और भारत का चीन से पिछड़ने का मुख्य कारण यह भी है कि चीन ने नवीकरणीय ऊर्जा का उपयोग सुनियोजित तरीके से किया है। सौर ऊर्जा दो प्रकार से उपयोग की जाती है।

-सोलर हीटिंग और कूलिंग

-सोलर पैनल

सोलर हीटिंग और कूलिंग में तापीय ऊर्जा का प्रयोग किया जाता है। मुख्यतः पानी गर्म करने में इसका प्रयोग किया जाता है। चीन ने छह लाख सत्तर हजार लोगों को इससे रोज़गर उपलब्ध कराया तो भारत सिर्फ बीस हज़ार सात सौ लोगों को रोजगार दिलाने में सफल हुआ है। सोलर पैनल में प्रकाश ऊर्जा का प्रयोग किया जाता है। विद्युत बल्ब, पंखे आदि चलाने में इसका प्रयोग किया जाता है। भारत ने इसके विकास के लिये राष्ट्रीय सौर मिशन चलाया है पर फिर भी इसके प्रयोग में भारत अपने प्रतिद्वंद्वी चीन से कहीं पीछे है। इईएसआई के अनुसार चीन ने 21,94,000 लोगों के लिए सोलर पैनल के ज़रिए रोजगार के अवसर पैदा किये तो भारत इसमें सिर्फ 1,15,000 अवसर पैदा कर चीन से कहीं पीछे था।

प्रकृति का नियम है कि जो एक बार ऊपर उठता है वह नीचे भी आता है। कोरोना का यह बहाव भी अवश्य खत्म होगा पर देखना यह होगा कि हम भारतीय उस बहाव से खुद को संभाल पायेंगे या उसमें बह कर अपने आने वाले भविष्य को भी बर्बाद कर देंगे।

लेखक हिमांशु जोशी, टनकपुर शोध विद्यार्थी

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