देहरादून : संतुष्ट व्यक्ति तीन तरह के होते हैं पहला जो सदैव संतुष्ट रहता है। दूसरा जो कभी संतुष्ट और कभी असंतुष्ट के संकल्पों के छाया में अन्दर आते जाते रहते हैं और फिर निकल आते हैं लेकिन फसते नही हैं। तीसरे व्यक्ति जो कभी संकल्प की असंतुष्टता, स्वयं की असंतुष्टता, कभी परिस्थितियों की असंतुष्टता और कभी कभी स्वयं के मानसिक हलचल की असंतुष्टता की चक्र में चलते और निकलते रहते हैं लेकिन अंततः फसें रहते हैं।
प्रश्न इस बात का है हमारी असंतुष्टता का मूल कारण क्या है। वास्तव में हमारी असंतुष्टता का बीज सर्व प्राप्तियों में निहित है इसके विपरित असंतुष्टता का बीज अप्राप्तियों में है। सभी प्राप्ती होते हुए भी सभी विधि से सिद्धि करते हुए भी हम असंतुष्ट क्यों रहते हैं। क्योंकि एक ही द्वारा, एक ही जैसा, एक ही समय, एक ही विद्धि से चलते हैं लेकिन अपने प्राप्त गुणों को हर समय हर कार्य में यूज नही करते हैं। अथवा हम अपने गुणों और विशेषताओं को भुल जाते हैं और उसे यूज नही करते हैं जिसके प्रभाव से गुण, विशेषता और शस्त्र होते हुए भी पराजित हो जाते हैं। मूल कारण है प्राप्त विशेषता को सही ढं़ग से यूज न करना।
हमें अपनी गुणों और विशेषताओं की स्मृति तो रहती है लेकिन हम इन गुणों और विशेषताओं अपने चाल चलन में नही लाते हैं अथवा स्मृति स्वरूप नही बनते हैं। हम छोटे-छोटे चाहत और इच्छाओं में अर्थात हद की प्राप्ति में ठहर जाते हैं। हद की प्राप्ति अर्थात अल्पकाल की प्राप्ति की इच्छा, बेहद प्राप्ति के फलस्वरूप होने वाली संतुष्टता की अनुभूति से वंचित कर देती है। हद की प्राप्ति दिलों में भी एक परसेन्टेज या हद में डाल देती है। इसलिए हमें असंतुष्टता की अनुभूति होती है। अर्थात हद की इच्छाओं का फल अल्पकाल की पूर्ति वाला होता है। इसलिए हम अभी अभी संतुष्ट रहते हैं लेकिन अभी अभी असंतुष्ट भी हो जाते हैं।
संतुष्टता की निशानी है कोई व्यक्ति मन से, दिल से, ड्रामा से, स्वयं से और दूसरों से सदैव संतुष्ट रहेंगे। इनके मन और तन में सदैव प्रसन्नता की लहर दिखाई देगी। चाहे कोई भी परिस्थिति आ जाए, सामना करने वाली स्थिति आ जाए, कर्मभोग की स्थिति आ जाऐ लेकिन ऐसा व्यक्ति अपनी संतुष्टता वाले गुण के कारण सदैव अपने चेहरे पर प्रसन्नता की झलक बना के रखता है।
प्रसन्नचित् व्यक्ति किसी भी बात में प्रश्नचित नही रहता है। क्योंकि यदि प्रश्न है तब व्यक्ति प्रसन्न भी नही रह सकता है। प्रश्नचित रहने की निशानी है, ऐसा व्यक्ति सदा निस्वार्थी और सभी में निर्दोष देखने का अनुभव करेगा अथवा किसी दूसरे के उपर दोष नही मढ़ेगा। ऐसा व्यक्ति न तो अपने भाग्य को दोष देगा न ही अपने स्वभाव संस्कार को दोष देगा और न ही प्रकृति और वायुमण्डल को दोष देगा अर्थात प्रसन्नचित व्यक्ति सदैव निस्वार्थ, निर्दोष, वित्तीय दृष्टि वाला होगा।
संतुष्टता और प्रसन्नता खुशी के खजाने की चाबी है। जो सदा संतुष्ट रहते हैं वो स्वयं भी संतुष्ट रहते हैं और दुसरों को भी संतुष्टता की अनुभूति कराते हैं। ऐसे व्यक्ति का चाल चलन रायल होता है और अपनी दृष्टि, वृत्ति और कृति द्वारा सदा संतुष्टी का अनुभव कराते हैं, ऐसे व्यक्ति के संकल्प में, बोल में, कर्म में और संगठन के सम्बन्ध-सम्पर्क में संतुष्टता के गोल्डन पुष्प की सुगंध फैलाते हैं।
वर्तमान समय संतुष्टता और प्रसन्नता का समय है। वर्तमान को भुल भूत पर जाने पर असुंष्टता का अनुभव होगा। वर्तमान समय हमारी प्रापर्टी है संतुष्टता और पर्सेनालिटी है प्रसन्नता। अपनी प्रापर्टी और पर्सेनालिटी को अनुभव में लाए और दूसरो को अनुभवी बनाए।
अव्यक्त बाप दादा महावाक्य मुरली 05 अक्टूबर, 1987
लेखक : मनोज श्रीवास्तव, सहायक निदेशक सूचना एवं लोकसम्पर्क विभाग उत्तराखंड
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