पैठाणी / गढ़वाल (देवकृष्ण थपलियाल):वैसे कोविड-19 नें दुनियॉ-जहॉन को काफी कुछ बदलकर रख दिया है, जीवन से जुडा ऐसा कोई पहलू नहीं है, जहॉ इसनें दस्तक न दी हो, मनुष्य के सभी क्रियाकलापों में इसनें असर डालनें वाले परिवर्तन किये हैं। प्रकृति व पर्यावरण के लिए “लॉकडाउन” वरदान साबित हो रहा है, दिल्ली, मुबंई जैसे महानगरों के प्रदुषण में गुणात्मक कमीं आई है, देश की सभी प्रमुख नदियों का जल पहले की अपेक्षा काफी साफ है, वनों के बीच स्वतंत्र विचरण करनें वाले पशुओं-पक्षियों की आजादी लोगों के लिए कौतुहल का विषय बना है।
परन्तु देश – दुनियां के आर्थिक पहिऐं जाम हैं, बेरोजगारी, बेकारी का आलम ये है, लाखों मजदूर सडकों पर हैं, रोज कमानें-खानें वाले लाखों छोटे-मझोले व्यापारी, किसान, मजदूरों के सामनें अपनें और अपनें परिवारजनों को बचानें का सवाल खडा हो गया है ? आपाधापी में लोग सैकडों-हजारों किमी पैदल ही भीड के साथ अपनें मूल स्थानों की ओर लौट रहे हैं। उत्तर प्रदेश, उत्तराखण्ड, बिहार, मध्य प्रदेश, राजस्थान और महाराष्ट्र राज्यों के हालात बद्त्तर हैं, यहॉ से आनें-जानें वाले मजदूरों नें कोविड-19 को विस्तारित करनें में अहम् भूमिका निभाई है। जहॉ मजदूर वर्ग अपनें रोजगार से महरूम हो गये वहीं भीड और पैदल चलनें से उसे ’कोरोना वायरस’ की चपेट में आनें से महामारी के दर्द नें आहत कर दिया है। जाहिर सी बात है, कि दिल्ली, मुंबई के रेलवे-बस स्टेशनों पर जमा भीड नें महामारी से बचनें के तमाम नियमों स्वास्थ्य नियमों सोशल डिस्टेंस, मास्क, पीपीई कीट) को दरकिनार कर मजदूरों में घर जानें की बेताबी, बेकरारी और मजबूरी दिखी, जो अनायास नहीं था.
जब सरकार और जिम्मेदार लोग चुप्पी सादे हों तो समाज का दूर्बल वर्ग यही सब करनें को मजबूर होगा ? उससे मजदूरों बेवजह वायरस की चपेट में आना ही था, जो उन पर दोहरी मार थीं । सबसे निरापद मानें जानें वाला पहाडी प्रदेश उत्तराखण्ड का ग्रामीण इलाका भी अपनें प्रवासी परिजनों के आगमन से खासा विचलित है, इस समय कोरोना पीडितों की सख्या 1,000 के ऑकडे को छूनें को बेताब है, प्रतिदिन 100 मरीजों के औसत से बढ रहे कोरोना पॉजिटिवों की संख्या से अगले दिनो हजारों में पहुंच जाय तो आश्चर्य नही होगा ? इसे प्रवासी मजदूरों की सौगात के अलावा कुछ नहीं कहा जा सकता है ? पहाडी ग्रामीण गॉवों-कस्बों की बनावट ही इस तरह की होती है, जहॉ ‘‘सोशल डिस्टेंस’’ की कल्पना भी नहीं की जा सकती ? एक घर/व्यक्ति बिना दूसरे के सम्पर्क में रहे, बाहर निकल नहीं सकता है, ऐसे में आगामी दिनों में इस महामारी की कल्पना मात्र से मन सिंहर उठता है । इस तरह अमीरों द्वारा आयातित इस बीमारी की सबसे बडी चोट गरीब, मजदूर, मजलूम व मेहनतकशों को ही भूगतनीं पड रही है।
अमानवीयता और लॉशों पर राजनीति करनें वाले हमारे सियासतदानों को भला कब इनके दुःखों के लिए फुर्सत है। उत्तर प्रदेश के मजदूरों को लानें-ले-जानें के लिए राजस्थान सरकार नें बसों का इंतजाम किया था, पर यू0पी0 सरकार को इन बसों में खामियॉ ही खामियॉ नजर आई ? पर जो मजदूर भूखे-प्यासे अपनें परिवार और साथियों के साथ भरी दोपहरी में भीषण गर्मी की तपिस के साथ पैदल ही चल रहे थे, उन पर तब इनकी नेतागीरी नहीं पसीजी ? कुछ अभागे मजदूरों के लिए तो ये लॉकडाउन जींदगीं का आखिरी सफर साबित हुआ ? पैदल चल रहे इन मजदूरों को रेल, ट्रक-ट्रैक्टरों-बसों द्वारा बडी बेरहमी से कूचला गया। बिहार की नन्हीं सी मजदूर की बिटिया का अपनीं मॉ के कफन के साथ खेलनें का हृदय विदारक दृष्य देखनें-पढनें को मिला, ऑखें नम हो गईं । लॉकडाउन को लेकर राजनीति अपनें चरम पर है। रेलगाडियों व बसों के किराये पर भी राज्य सरकारें असमंजस में हैं ? कई सरकारों को मजदूरों का किराया चूकाना फिजूलखर्ची लगा ? माननीय उच्चतम न्यायालय को मजदूरों की इस दूर्दशा का संज्ञान स्वतः लेंना पडा, अपनें आदेश में कोर्ट नें साफ कहा कि राज्य सरकारें श्रमिकों का न केवल रेल, बस का किराया चुकाये बल्कि उनके भोजन व मार्ग में उचित आश्रय की व्यवस्था भी जुटाये ?
अगर बात चुनावी मौसम की होती तो तब सरकार नहीं नेताओं के अपनें प्राइवेट व्हीकल्स भी देश भर की मिट्टी छानते नजर आते ? जहॉ-जहॉ उनके (वोटर) श्रमिक हैं, घर-घर में जाकर उनके परिजनों की सूध लेते ? परन्तु आज जिस तरह से श्रमिकों, गरीबों, किसानों और मेहनतकशों को सरकार नें उनके हाल पर छोड दिया गया है, उससे बडी शर्मनाक बात (किसी भी सभ्य कहे जानें वाले राष्ट्र के लिए) और क्या हो सकती है ?
भारत सरकार नें बीस लाख करोड रूपये की आर्थिक मदद की पेशकश की है, पॉच दिनों तक चले पत्रकार वार्ता में वित्तमंत्री निर्मला सीतारमण नें सिलसिलेवार तरीके से देश के सामनें उसका ब्यौरा प्रस्तुत किया, परन्तु यह मजदूरों को ‘सहयोग’ कम ’बोझ’ अधिक है, कहें तो सरकार की ’साहुकारी नीति’ से कर्जदार का ’डर’ उसे ’जीनें’ नहीं देगा ? खासकर तब जब उसका नय-नवेलेे उद्योग-व्यापार चलनें की कोईं गाराण्टी नहीं होगी ? इसमें चाहे सरकार कितनी भी रियायतें दें किन्तु यह सौदा आम मजदूर के लिए ये घाटे और जोखिम से भरा है ? सरकारी मुलाजिम व उसकी चिट्ठी हर वक्त उसके दरवाजे को खटखटाती रहेगी ? नजीर के तौर पर केन्द्रीय कानून मंत्री जयंशंकर प्रसाद की मानें उनके प्रांत बिहार में 200 प्रवासी श्रमिक ऐसे हैं, दर्जी के काम में निपूर्ण हैं, उनके अनुसार वे सरकारी मदद से अपना काम शुरू करें, तो उन्हें इस संकट से उबरनें में मदद मिलेगी ? परन्तु वे भूल गये की जुम्मे-जुम्मे बाजार में आये लोगों को कितनी तवज्जो मिल सकेगी, और पहले से जमे-जमाए लोग कहॉ जायेंगें ? उसी तरह उत्तराखण्ड में आजीविका उपार्जन के लिए कृषि, बागवानी, जडी-बूटी तथा पर्यटन-तीर्थाटन को लेकर बडे-बडे सरकारी दावे किये जाते हैं, किन्तु फसलों को नुकसान पहुॅचानें वाले जंगल-जानवरों, से बचाव, कोल्ड स्टोरेज, विपणन व बाजार के लिए कोई सुविधा उपलब्ध नहीं है। ऐसे में जो लोग खेती-किसानी में रूचि भी रखते हैं, वे भी जल्दी हतोत्साहित होंने लगते है, इसीलिए वे या तो खेती-किसानी छोड देते हैं, अथवा पलायन की राह पकड कर देश के अन्य हिस्सों में काम तलाश में जाते हैं, उत्तराखण्ड का एक बहुत बडा वर्ग होटल व्यवसाय में कार्यरत है, जो आज बेकार और बेरोजगार है।
इसीलिए ऐसे मजदूरों को खड़ा होंनें के लिए फौरी तौर पर आर्थिक मदद की जरूरत है, जिसे सरकार प्राथमिकता के तौर पर कर सकती है। कॉग्रेस पार्टी की तरफ से मिले सुझाव से अगर सरकार को गुरेज न होतो, ऐसे वक्त में सरकार गरीब मजदूरों के खाते में तत्काल 10,000 रूपये और कुछ महीनों तक प्रतिमाह 7,500/उनके खाते मे डाले, तभी उन्हें कुछ सहयोग हो पायेगा और उनके योगदान का मान बढाया जा सकेगा ? आखिर सरकार और जिम्मेदार लोग ये क्यों भूलते हैं, कि जिन मखमली सडकों पर उनकी मॅहगीं और लग्जरी कारें दौडती हैं, उन्हें सजनें-संवॉरनें में इन्ही मजदूरों का खुन-पसीना बहा है । उन्होंनें ही दिन-रात एक-कर कोलतार कंकरीट मिट्टी, गारे-पत्थरों और धूल-धक्कड के थपेडों को सहा और उन्हें तराशा है। जिन बहुमंजिला आशियानों में ये लोग अपनें को महफूज पा रहे हैं, शापिंग मॉल्स, बडे व्यापारिक प्रतिष्ठान, ऑफिस, होटल, रेस्तरॉ व कई तरह के पार्क मनोरंजन स्थल बनानें में श्रमिकों नें अपना योगदान दिया है, वे आज उन्ही सडकों, भवनों के आगे दर-दर की ठोकरें खानें को मजबूर हैं ?
इसी साल के शुरूवात में चीन के वुहान शहर से होते हुऐ भारत में कोरोना वायरस (कोविड-19) की इण्ट्री हुई, तब इस वायरस की भयावहता की अनभिज्ञता होंना इसकी सबसे बडी कमजोरी साबित हुआ ? कहा जा रहा है, की चाइना द्वारा इस महामारी के भंयकर परिणामों को छुपाया गया, अमेरीका और पश्चिमी देशों की बातों पर जरा गौर फरमायें तो इसमे कुछ सच्चाई भी नजर आती है । वुहान शहर में इस महामारी से लाखों लोंगों की जानें गईं, चाइना नें उस पर काबू पानें के लिए हर वो इंतजाम किये जिससे यह महामारी शहर से बाहर न जा पाये, चीन के बाकि प्रान्तों में इसका साफ असर दिखा भी, महज 800 की किलामीटर की दूरी पर स्थित देश की राजधानी बीजिंग इससे निरापद रही है। लेकिन चाइनीज हुक्मरानों नें इसको काबू पानें के तौर-तरीकों को सार्वजनिक नहीं किया न किसी देश को इसकी भनक लगनें दी, अव्वल तो दूसरे देशों नें जब मदद चाही तो उसमें भी झोल था ? कई राष्ट्रों ने इस आपातकाल में चीन से खरीदे गये पीपीई कीट, मास्क, और अन्य सुरक्षात्मक उपकरणों में काफी खामियॉ पाई गई, इसे दूर्भावनापूर्ण कृत्य मानकर कई देशों नें इसे चीन को वापस भी किऐ हैं ? चीन के इस गैर जिम्मेदाराना व्यवहार पर दुनियॉ के सभी देशों नें अफसोस व्यक्त किया है। डब्ल्यूएचओ अनायास ही इसके केद्र में हैं, ऐसे समय में जब सभी देशों को इसकी सख्त आवश्यकता है, यही एक संस्था है, जो सभी देशों को एक छाते के नीचे लानें में कारगर है, यह वैश्विक महामारी है, जिसका मुकाबला सभी देशों के समन्वय से संभव है । अमेरीका द्वारा इसकी फंडिग बंद करनें की धमकी इस संस्था को बहुत बडा आघात है, क्योंकि अमेरीका द्वारा दी जानें वाली राशि इस संस्था के कुल बजट 50-60 फीसदी के आसपास है, जो सयुक्त राष्ट्र संघ के शेष सभी सदस्य देशों के बराबर है। आज डब्ल्यूएचओ चीन अमेरीका के शीत युद्व के केंद्र में तब्दील होंनें लगा है।
पृथ्वी पर मानवता पर आये इस सर्वाधिक संकट के समाधान के लिए सभी जिम्मेदार व्यक्तियों, राष्ट्रों का एक जुट होकर लडना आवश्यक है। यदि इसी तरह की घिनौंनी राजनीति बरकरार रहेगी तो सम्पूर्ण मानवता खतरे में पड. जायेगी ।
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