दिल्ली : मौसम में तपिश और उमस लगातार बढ़ रही है, लेकिन देश में फैली महामारी के कहर से भी मौत के आंकड़े तेजी से बढ़ रहे हैं। अधिकतर लोग सोशल मीडिया पर सांसों को बचाने के लिए मदद की गुहार लगा रहे हैं। क्योंकि देश में आजकल इंसानियत और मदद विशेषाधिकार सा हो गई है। ऐसा इसलिए कह रहा हूं, क्योंकि बीते साल से अभिनेता सोनू सूद की बसों को परमिट आसानी से मिल रहे हैं। विपक्ष की सरकारों की बसों को रास्ते में रोक दिया जाता है। यह प्रिविलेज को चरितार्थ करने का एक जीता जागता उदाहरण है। ऐसे और भी बहुत से उदाहरण मिल जायेंगे। ऐसी भीषण स्थिति में मदद मिल जाए और जिंदगी को बचा लिया जाए। खैर देश में लोकतंत्र जो ठहरा। हर जगह राजनीति का टैग लगाना जरूरी है।
वरिष्ठ पत्रकार नितिन (रवि) उपाध्याय कहते हैं कि सरकारी और मीडिया के द्वारा उपलब्ध कराये जा रहे आंकड़े बिल्कुल भी सुखद नहीं है। लाखों लोगों के कोरोना संक्रमित और हजारों लोगों की चिताओं के जलने की ख़बर भी अब आम सी लगने लगी है। लेकिन इस महामारी और मौत का अपना ही न्यायशास्त्र है। यह महामारी इस समय धर्म, जात-पात, छोटा बड़ा, आम और खास, खेल-जगत, फ़िल्म-जगत, व्यापारियों, राजनीतिक गलियारों या मीडिया जगत आदि किसी को नही देख रही है। जो भी सामने आ रहा है, कोरोना महामारी की बांहे उसे अपने आगोश में लेकर हमेशा के लिए खामोश करने के लिए उतावली दिखाई दे रही है। यह फेहरिस्त इतनी लंबी हो गई है कि किसे याद करके लिखा जाए और किसे भूलकर कहना बहुत मुश्किल हो गया है।
इस महामारी में कालाबाजारी, चोरी, ठगी लूटपाट और मानवता को शर्मसार करने वाली कफ़नचोरी जैसी घटनायें अपने चरम पर है। तो वहीं दूसरी ओर समाजसेवा, सहायता, सहयोग मानवता भी जिंदा है। दरअसल ये दोनों एक ही सिक्के के दो पहलू है। यह हैरत में डालने वाली बात जरूर है। लेकिन इस कड़वी सच्चाई से भी मुंह नहीं मोड़ा जा सकता कि हमारे ही समाज ने ऊंच नीच, गैर बराबरी, लालच, अव्यवस्था, संवेदनहीनता और राजनीतिक स्वार्थ को वर्षों से स्थापित किया गया है। अब लालच और संवेदनहीन राजनीति नागरिक के मौलिक अधिकारों से बड़ी हो गई है। वैंटीलेटर, ऑक्सीजन, औषधियों और रेमडेसिविर इंजेक्शन की कालाबाजारी करने, नक़ली दवाओं के बेचने वाले और कफ़न चोरी करने वाले हमारे समाज का ही एक हिस्सा हैं। जबकि कालाबाजारी समाजसेवा और समाजसेवा कालाबाजारी नही हो सकती।
मसलन, उदाहरण के तौर पर देश में स्थिति ऐसी पैदा हो गई है। जहां अंधा कह रहा है कि ताजमहल बहुत सुंदर दिख रहा है। बधीर कह रहा है कि मुझे बहुत ही सुरीली आवाज सुनाई दे रही है। जबकि हकीकत से हर कोई वाकिफ है कि सरकारी नुमाइंदे, हुक्मरान, नौकरशाह और विपक्षी सियासतदान रोज चीख-चीख कर इस महामारी को हराने और एकजुट होने का ढोल बजा रहे हैं।
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