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नेशनल पीएचडी स्क्रीनिंग टेस्ट के बाद कन्फर्म हो रिसर्च डिग्री

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posted on : जून 1, 2025 4:46 अपराह्न

हरिद्वार : बीते एक साल में यूजीसी ने एक दर्जन से अधिक प्राइवेट विश्वविद्यालयों पर पीएच.डी. डिग्री ऑफर करने पर रोक लगाई है। अब यह कोई छिपी हुई बात नहीं है कि कई प्राइवेट विश्वविद्यालयों में चार से छह लाख में डिग्री बेची जा रही हैं। किसी भी विषय या डोमेन की डिग्री एक-डेढ़ लाख में लिखवाकर दी जा रही है। देश में करीब साढ़े चार सौ प्राइवेट विश्वविद्यालय हैं, जिनमें से ज्यादातर पीएच.डी. डिग्री में प्रवेश दे रहे हैं। मेघालय की सीएमजे यूनिवर्सिटी से लेकर उत्तर प्रदेश की मोनाड यूनिवर्सिटी तक के मामलों को जोड़ तो देश की पांच फीसद से ज्यादा प्राइवेट यूनिवर्सिटी पीएच.डी. डिग्री की खरीद-फरोख्त में शामिल हैं। पीएच.डी. के फर्जीवाड़े का मामला देश की संसद में भी उठ चुका है।

भारत में प्राइवेट विश्वविद्यालयों में फर्जी पीएच.डी. डिग्रियों और शैक्षणिक अनियमितताओं का मुद्दा शिक्षा प्रणाली की विश्वसनीयता को गंभीर रूप से प्रभावित कर रहा है। अभी तक यूजीसी और राज्य सरकारों ने इस रैकेट के खात्मे के लिए गंभीर और ठोस प्रयास नहीं किए हैं, जबकि इसे जड़ से खत्म करने के लिए समन्वित तकनीकी और कठोर कानूनी उपाय अपनाने की आवश्यकता है। दो काम तत्काल किए जाने की जरूरत है। पहला, यूजीसी द्वारा यह अनिवार्य किया जाना चाहिए कि पीएच.डी. में पंजीकृत होने वाले हरेक शोधार्थी का डेटा शोधगंगा पोर्टल पर अधिकतम तीस दिन के भीतर अपलोड किया जाए। जिनके एडमिशन और सिनॉप्सिस की स्वीकृति का डेटा इस पोर्टल पर होगा, उन्हीं की थीसिस मूल्यांकन के लिए स्वीकार की जाएगी। इस कार्य में कोई अतिरिक्त संसाधन खर्च नहीं होने हैं, यह पूरी तरह यूजीसी की इच्छा शक्ति पर निर्भर है। इसके लागू होते ही पीएच.डी. में बैक डेट में एडमिशन का धंधा खत्म हो जाएगा।

दूसरा काम नीतिगत तौर पर कठिन है, लेकिन किया जा सकता है। इससे यूजीसी की स्वयं की साख बढ़ेगी। यूजीसी को पीएच.डी. डिग्री धारकों की योग्यता और क्षमता सुनिश्चित करने के लिए राष्ट्रीय स्तर की एक स्क्रीनिंग या लाइसेंसिंग परीक्षा की व्यवस्था पर विचार करना चाहिए जैसा कि मेडिकल क्षेत्र में नेशनल एग्जिट टेस्ट या बार काउंसिल ऑफ इंडिया के ऑल इंडिया बार एग्जामिनेशन के रूप में देखा जाता है। मेडिकल और लॉ ग्रेजुएट्स को अपने प्रोफेशनल फील्ड में आने के लिए संबंधित स्क्रीनिंग परीक्षाओं को पास करना होता है। चूंकि, पीएच.डी. उपाधि विशेष प्रयोजन के लिए हासिल की जाती है इसलिए संबंधित लोगों से यह अपेक्षा करना गलत नहीं होगा कि उनके ज्ञान का स्तर इस लायक है कि वे अपने नाम के सामने डॉक्टर लगा सकें या उस डिग्री के आधार पर उच्च पद प्राप्त कर सकें।

1986 के यूजीसी रेगुलेशन से पहले डिग्री कॉलेजों में ऐसे लोगों को लेक्चरर या सहायक प्रोफेसर के तौर पर नियुक्त किया जा सकता था जिन्होंने स्नातक और स्नातकोत्तर उपाधि प्रथम श्रेणी के साथ प्राप्त की हो, बाद में जब गुणवत्ता का प्रश्न आया तो यूजीसी ने राष्ट्रीय स्तर की नेट परीक्षा को न्यूनतम योग्यता में शामिल किया। (हालांकि यह न्यूनतम योग्यता भी बार-बार संशोधित की जाती रही है।) इसी तरह अब पीएच.डी. उपाधि प्राप्त करने जा रहे युवाओं के लिए राष्ट्रीय स्तर की परीक्षा लागू की जानी चाहिए। केवल उन्हीं की पीएच.डी. कन्फर्म की जाए जो इस परीक्षा को पास करें।

इस परीक्षा की अनिवार्यता लागू होते ही पीएच.डी. की खरीद-बिक्री का धंधा लगभग नियंत्रित हो जाएगा क्योंकि पीएच.डी. डिग्री खरीदने के बाद यदि इस परीक्षा को पास न कर पाए तो डिग्री का महत्व लगभग शून्य हो जाएगा। यूजीसी और राज्य सरकारों को साथ-साथ यह भी करना होगा कि सभी प्रकार की अकादमिक एवं रिसर्च संबंधी नियुक्तियों और प्रमोशन आदि में केवल वे ही पीएच.डी. उपाधि मान्य हों, जिनके साथ राष्ट्रीय स्तर की पात्रता परीक्षा पास कर ली गई हो।

यह परीक्षा पीएच.डी. डिग्री धारकों की शोध क्षमता, विषय ज्ञान एवं शैक्षिक गुणवत्ता की जांच करेगी और सुनिश्चित करेगी कि केवल योग्य व्यक्ति ही पीएच.डी. उपाधि का उपयोग अकादमिक या पेशेवर क्षेत्रों में कर सकें। इसमें विषय के विशिष्ट प्रश्न, शोध पद्धति, डेटा विश्लेषण, शोध नैतिकता और संबंधित व्यक्ति के रिसर्च टॉपिक से संबंधित प्रश्न शामिल किए जा सकते हैं। इसके साथ-साथ यूजीसी को शोध मूल्यांकनकर्ताओं का नेशनल डेटा बैंक बनाना चाहिए और अनिवार्य करना चाहिए कि परीक्षकों के नाम इसी डेटा बैंक से लिए जाएं ताकि कतिपय मूल्यांकनकर्ताओं के स्तर पर होने वाले फर्जीवाड़े को रोका जा सके। इस डेटा बैंक में देशभर के सभी विषयों के एसोसिएट प्रोफेसर, प्रोफेसर और 70 वर्ष से कम उम्र के रिटायर्ड प्रोफेसरों को शामिल किया जाना चाहिए। (इस संख्या को बढ़ाने के लिए पांच वर्ष का अनुभव रखने वाले सहायक प्रोफेसरों को भी शामिल किया जा सकता है।) इस डेटा बैंक में से जो परीक्षक बनाए जाएंगे, उन्हीं द्वारा शोधार्थी के शोध पत्रों को मान्यता प्राप्त जर्नल्स में प्रकाशन के आधार पर सत्यापित किया जा सकेगा।

यूजीसी द्वारा परीक्षक या एक्सपर्ट डेटा बैंक को और विस्तार देते हुए इसे रिसर्च गाइड डेटा बैंक के रूप में भी प्रयोग में लाया जा सकता है। यानी जो शिक्षक पीएच.डी. उपाधि हेतु गाइड बनने के पात्र हैं, उन सभी की डिटेल एक ही स्थान पर होनी चाहिए। इस डेटा बैंक को प्रत्येक वर्ष या छमाही आधार पर अपडेट किया जा सकता है। विश्वविद्यालयों के लिए यह अनिवार्य हो कि उनके यहां नियुक्त या कार्यरत सभी पात्र शिक्षकों का संपूर्ण विवरण इस पोर्टल पर उपलब्ध हो। इससे शोधार्थियों को यह जानने का अवसर मिलेगा कि वे जिस व्यक्ति के निर्देशन में शोध कार्य कर रहे हैं अथवा करने जा रहे हैं, संबंधित फील्ड में उनकी योग्यता क्या है।

पीएच.डी. के बाद की स्क्रीनिंग या लाइसेंसिंग परीक्षा भी यूजीसी नेट के समान साल में दो बार आयोजित की जा सकेगी। इस परीक्षा का आयोजन इसलिए कोई बड़ा टास्क नहीं होगा क्योंकि देशभर में सभी विषयों को मिलाकर प्रतिवर्ष 29-30 हजार युवा पीएच.डी. उपाधि प्राप्त करते हैं। पीएच.डी. धारकों के लिए इस परीक्षा की अनिवार्यता के लिए कट ऑफ डेट हेतु यूजीसी के नवीनतम शोध उपाधि रेगुलेशन-2022 को आधार तिथि बनाया जा सकता है। इसके बाद पंजीकृत हुए सभी शोधार्थियों के लिए यह परीक्षा अनिवार्य हो, जिन्होंने यूजीसी या सीएसआईआर नेट पास किया है, उन्हें इस परीक्षा से छूट देने पर विचार किया जा सकता है। इस परीक्षा में सफल होने वाले उम्मीदवारों को एक नेशनल पीएच.डी. लाइसेंस या क्वालिफिकेशन सर्टिफिकेट प्रदान किया जाए जो डिग्री की वैधता और योग्यता को प्रमाणित करेगा। यह प्रणाली निश्चित रूप से फर्जी डिग्रियों के उपयोग को रोकेगी क्योंकि बिना उचित शोध क्षमता के सामान्यतः उम्मीदवार इस परीक्षा को पास नहीं कर सकेगा। साथ ही यह शैक्षिक गुणवत्ता को भी मानकीकृत करेगी। जो पहले से पीएच.डी. उपाधि प्राप्त कर चुके हैं, उनके मामले में इसे वैकल्पिक रखा जा सकता है।

नेशनल डिजिटल रजिस्ट्री की जरूरत

फर्जी डिग्रियों की छपाई और वितरण को रोकने के लिए एक केंद्रीकृत डिजिटल सत्यापन प्रणाली लागू किए जाने की भी जरूरत है। इस क्रम में यूजीसी और सभी राज्यों के शिक्षा मंत्रालय एक ब्लॉकचेन आधारित डिजिटल रजिस्ट्री स्थापित करें जिसमें सभी मान्यता प्राप्त विश्वविद्यालयों द्वारा जारी पीएच.डी. डिग्रियों का डेटा संग्रहीत हो। प्रत्येक डिग्री को एक अलग डिजिटल कोड प्रदान किया जाए, जिसे नियोक्ता, शैक्षणिक संस्थान या अन्य हितधारक उसे सत्यापित कर सकें। इसके साथ एक ऑनलाइन सत्यापन पोर्टल भी बनाया जाए, जहां कोई भी व्यक्ति डिग्री की वैधता की जांच कर सके। यूजीसी के मौजूदा रिसर्च रिजर्वायर शोधगंगा को भी इस कार्य के लिए अपडेट किया जा सकता है। पीएच.डी. डिग्रियों के लिए वास्तविक समय निगरानी व्यवस्था लागू की जाए। विश्वविद्यालयों के लिए प्रत्येक पीएच.डी. डिग्री जारी करने पर तुरंत रजिस्ट्री में अपडेट करना अनिवार्य हो। इसमें रिसर्च वर्क की संपूर्ण डिटेल शामिल हो। अभी शोधगंगा पर जिस प्रकार थीसिस अपलोड की जा रही हैं, उनसे वास्तविक उद्देश्य पूरा नहीं हो पा रहा है।

ऐसा नहीं है कि सभी प्राइवेट विश्वविद्यालयों में पीएच.डी. खरीदी-बेची जा रही हैं, लेकिन जब पांच फीसद से ज्यादा यूनिवर्सिटी गड़बड़ी कर रही हैं तो अन्य संस्थाएं भी संदेह की निगाह से देखी जाने लगती हैं। ऐसे में सभी विश्वविद्यालयों की सख्त निगरानी और ऑडिट की तत्काल आवश्यकता है। इसके लिए यूजीसी अथवा राज्य सरकारों द्वारा गठित एक स्वतंत्र ऑडिट समिति प्रत्येक वर्ष विश्वविद्यालयों का रिसर्च ऑडिट करे। (नैक या एनआईआरएफ की मौजूदा प्रक्रिया से यह कार्य नहीं हो सकेगा।) इसमें शोध उपाधि प्रवेश प्रक्रिया, थीसिस मूल्यांकन, गाइड की योग्यता और डिग्री प्रदान करने की प्रक्रिया की जांच की जाए और उसकी रिपोर्ट संबंधित विश्वविद्यालय की वेबसाइट, यूजीसी की वेबसाइट और राज्य के उच्च शिक्षा मंत्रालय या निदेशालय की वेबसाइट पर भी जारी की जाए ताकि प्रवेश लेने वालों को पता रहे कि संबंधित विश्वविद्यालय द्वारा निर्धारित प्रक्रिया का पालन किया जा रहा है या नहीं।

कुछ प्राइवेट विश्वविद्यालय अपनी स्थापना के पहले सत्र में ही पीएच.डी. उपाधि आरंभ कर देते हैं जो नियमों के विपरीत है। जब तक किसी नए विश्वविद्यालय को यूजीसी से 2एफ की मान्यता प्राप्त न हो जाए और कम से कम दो या तीन बैच स्नातकोत्तर उपाधि पास न हो जाएं तब तक शोध उपाधि आरंभ करना नियमों के खिलाफ है। यूजीसी को 2एफ की मान्यता देने से पहले प्राइवेट विश्वविद्यालयों का बुनियादी ढांचा, फैकल्टी की उपलब्धता और शोध सुविधाओं की गहन जांच करनी चाहिए और ऐसी जांच हरेक पांच साल में दोहराई जानी चाहिए। कई विश्वविद्यालयों में रेगुलर शिक्षक नहीं हैं और वे भी धड़ाधड़ पीएच.डी. करा रहे हैं। इस पर रोक का एक ही तरीका है कि प्राइवेट विश्वविद्यालय जिन शिक्षकों को गाइड के रूप में दिखा रहे हैं, उनके और संबंधित विश्वविद्यालय के बीच न्यूनतम पांच साल का नियुक्ति अनुबंध हो। इससे फर्जी गाइड पर भी रोक लगेगी और शोधार्थी भी परेशानी में नहीं फंसेंगे। सभी प्राइवेट विश्वविद्यालयों में पीएच.डी. सीटों की संख्या उनकी शोध सुविधाओं और गाइड की उपलब्धता के आधार पर निर्धारित की जाए ताकि अंधाधुंध दाखिले रोके जा सकें। वर्तमान में सैद्धांतिक रूप से तो यह व्यवस्था लागू है, लेकिन व्यावहारिक तौर पर इसका पालन नहीं किया जाता।

त्वरित कार्रवाई और कानूनी ढांचा

फर्जी डिग्री के मामले में त्वरित और कठोर कानूनी कार्रवाई के बारे में भी सोचना पड़ेगा क्योंकि फर्जी डिग्री के आधार पर नियुक्त हुआ व्यक्ति नई पीढ़ी को कई दशक तक गुमराह करेगा इसलिए उसका अपराध गंभीर श्रेणी में रखा जाए। इस क्रम में फर्जी डिग्री मामलों के लिए विशेष कोर्ट स्थापित किए जाएं जो निर्धारित अवधि के भीतर मामलों का निपटारा करें। इसमें विश्वविद्यालय प्रशासन, एजेंटों और डिग्री धारकों को शामिल किया जाए। साथ ही, यूजीसी को भी जिम्मेदार माना जाए। ऐसे मामलों में भारी जुर्माना अधिरोपित किया जाए और विश्वविद्यालयों की मान्यता तुरंत रद्द की जाए। इन विश्वविद्यालयों और फर्जीवाड़े में शामिल व्यक्तियों का एक सार्वजनिक डेटाबेस बनाया जाए ताकि भविष्य में उनकी गतिविधियों पर नजर रखी जा सके। प्रत्येक राज्य में एक विशेष जांच इकाई स्थापित की जाए जो फर्जी डिग्री रैकेट की जांच में यूजीसी और राज्य सरकारों के साथ सहयोग करे।

फर्जी पीएच.डी. के मामले में अभी तक यूजीसी का रुख बहुत उम्मीद जगाने वाला नहीं है। यूजीसी की ज्यादातर कार्रवाई औपचारिकता भर ही हैं। यदि यूजीसी गंभीर हो तो उसे यह अनिवार्य करना चाहिए कि सभी प्रकार की पीएच.डी. में यूजीसी-जेआरएफ, यूजीसी-नेट, यूजीसी-नेट फॉर पीएच.डी. अथवा इसके समकक्ष सीएसआईआर-नेट के आधार पर ही प्रवेश होंगे। उपरोक्त सभी श्रेणियों में हर साल एक लाख से ज्यादा युवा सफलता प्राप्त करते हैं, जबकि पीएच.डी. में प्रवेश पाने वालों की संख्या इनके एक तिहाई ही है। यूजीसी के मौजूदा नियम और प्रावधान किसी न किसी स्तर पर प्राइवेट विश्वविद्यालयों के लिए पिछले दरवाजे की संभावनाएं छोड़कर रखते हैं।

इंटरनेशनल बेंचमार्किंग

भारत को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर रिसर्च और डिग्री सत्यापन के लिए बेंचमार्क स्थापित करने चाहिए। इसके लिए यूएसए, यूके, जर्मनी, जापान और ऑस्ट्रेलिया जैसे देशों की डिग्री सत्यापन और शोध मूल्यांकन प्रक्रियाओं का अध्ययन किया जाए। अंतरराष्ट्रीय डेटाबेस के साथ एकीकरण करते हुए भारत की नेशनल डिग्री रजिस्ट्री को वैश्विक डेटाबेस के साथ जोड़ा जाए। यह भारत की रिसर्च डिग्रियों की वैश्विक विश्वसनीयता को बढ़ाएगा और विदेश में भी फर्जी डिग्रियों का उपयोग रोकेगा। इस कार्य को स्टेम (साइंस, टेक्नोलॉजी, इंजीनियरिंग, मैथ्स अथवा मेडिकल) जैसे महत्तचपूर्ण विषयों में तुरंत किया जाना चाहिए।

वस्तुतः पीएच.डी. डिग्री की खरीद-बिक्री को रोकने के लिए यूजीसी और राज्य सरकारों को बहुआयामी दृष्टिकोण अपनाना होगा। राष्ट्रीय स्तर की पीएच.डी. स्क्रीनिंग लाइसेंसिंग परीक्षा, डिजिटल सत्यापन प्रणाली, सख्त निगरानी, कठोर कानूनी कार्रवाई और भावी शोधार्थियों के बीच जागरूकता, इस समस्या के समाधान के लिए महत्वपूर्ण हैं। ब्लॉकचेन आधारित रजिस्ट्री और रिसर्च गाइड एवं परीक्षकों का डेटा बैंक तथा टेक्नोलॉजी आधारित उपाय इस समस्या को जड़ से खत्म करने में मदद करेंगे। इनमें से कोई भी उपाय ऐसा नहीं है जो भारत में अन्य क्षेत्रों में पहले से लागू न किया गया हो अथवा जिसकी कॉस्ट इतनी अधिक हो कि उसे यूजीसी या राज्य सरकारें वहन न कर सकें। इस वक्त यदि कठोर निर्णय नहीं लिए गए तो अगले कुछ साल के भीतर उच्च शिक्षा और शोध क्षेत्र में गंभीर परिणाम सामने आएंगे। पीएच.डी. डिग्री फर्जीवाड़े पर नियंत्रण हेतु सक्षम तंत्र विकसित न करने पर भारत की शिक्षा प्रणाली की विश्वसनीयता और गुणवत्ता और संदेह से घिरेगी, जिससे योग्य शोधार्थियों और अकादमिक पेशेवरों के सामने भी संकट पैदा होगा।

  • लेखक : डॉ. सुशील उपाध्याय, प्राचार्य, चमनलाल महाविद्यालय लंढौरा हरिद्वार
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