- अंजू खरबंदा
दिल्ली : जब से पता चला साथ वाली आंटी ओल्ड एज होम में शिफ्ट हो गयी हैं दिल बड़ा उदास सा था। मै पहाडो की रहने वाली चंचल हिरणी…. शहर की भीड़ भाड़ से कतराती थी । मुम्बई की बड़ी बड़ी इमारतें और माचिस की डिबिया जैसे घर मुझे जेल से कम न लगते । मायके में सब सोचते मैं कितनी किस्मत वाली हूँ जो मुम्बई जैसे शहर में रहती हूँ पर….. उन्हे क्या पता कि यहां कितनी घुटन और अकेलापन है ।
पति की नौकरी यहीं है तो और तो कोई चारा नही यहाँ रहने के सिवा…. पर अक्सर मैं उकता जाती, खुद पर कोफ्त होने लगती । ये झुंझलाहट कभी कभी मुझे बहुत बेचैन कर देती । ये तो शुकर है कि सामने फ्लैट में रहने वाली आंटी जी से कभी हंस बोल लेती तो कुछ अपनापन सा महसूस होता । बूढ़ी व बीमार होने के कारण वह कम ही निकलती पर अक्सर उनसे मुलाकात हो जाती तो दो बोल बात कर लेते, कुछ हंसी मजाक कर लेते ।
अब कुछ दिन से वह दिखी नही तो उनकी बहू रिम्पी से पूछा तो पता चला कि वह तो अपना घर ओल्ड एज होम में हैं । इससे ज्यादा मैं कुछ न पूछ पाई, पर ये तो ठान लिया कि उनसे मिलने जरुर जाऊंगी ।अगले दिन सुबह घर के काम निबटा जब उनसे मिलने निकली तो खुद से पूछा कि क्या कहूंगी…. उनका उदास चेहरा देख कैसे उनका सामना करूंगी । पर दृढ़ निश्चय कर उनसे मिलने चल पड़ी । करीब दो किलोमीटर ही दूर था अपना घर । गेट पर एन्ट्री की…. उनका रूम नंबर पूछा और घड़कते दिल से चल पड़ी ।
रूम में पहुंची तो देखा साफ सुथरा चमकदार कमरा, सफेद झक्क चादर बिछी हुई….. धूल मिट्टी का नामो-निशान तक न था । “अभी सब बड़े कमरे में मिलेंगे । ” पीछे से आता हुआ स्वर कानों में पड़ा । मुडकर देखा तो उसने बताया- “वो सामने ही बड़ा वाला कमरा है ।” सौ कदम पर ही कमरा था, पास पहुन्ची तो हंसने खिलखिलाने की आवाजें आ रही थी । मैंने हल्का सा झांक कर देखा…. सब अपने में मस्त…. ग्रुप बना कर बैठे हैं… कोई कैरम खेल रहा है तो कोई चेस, कोई लूडो खेल रहा है तो कोई गप्पों में व्यस्त! चारों ओर नजर घुमाई तो दायीं ओर की टेबल पर आंटी जी बैठी थी…. “मैं नही तुम आउट हो…. देखो चीटिंग नही चलेगी….अब जल्दी से चाकलेट खिलाओ ।” कहते हुए वह बेतहाशा हंस पड़ी ।
एक पल को तो मुझे कुछ समझ ही नही आया, धीरे से उनके पीछे जाकर उनके कंधे पर हाथ रखा । मुझे देखते ही फुर्ती से उठ खड़ी हुई और मुझे गले लगा लिया । “मुझे पता था तू जरुर मुझसे मिलने आयेगी ।” वह मेरी आंखो में तैरते सारे प्रश्नों को पल भर मे पढ़ गयी । “मैं यहाँ बहुत खुश हूँ, सभी एक जैसी उम्र के लोग हैं यहाँ तो सबका साथ बड़ा अच्छा लगता है….पता ही नही चलता कब सुबह हुई कब शाम! बेटा बहू नौकरी वाले हैं सुबह जाते हैं रात को आते हैं, वहाँ के अकेलेपन से मैं बहुत परेशान हो गई थी तभी तो बीमार भी रहने लगी थी । यहाँ के खुशनुमा माहौल से तो बीमारी कोसों दूर भाग गई । बेटा, बुढ़ापे में अपना साथ अच्छा लगता है। कोई बोलने बतियाने वाला हो, कोई सुख दुख बांटने वाला हो।”
“और आपके बेटा बहू…. !” “न न उनकी कोई गलती नही, उन्होंने मुझे यहाँ नही भेजा । ये तो मेरी सहेली ने मुझे यहाँ के बारे में बताया तो मैंने खुद यहाँ आकर देखा और फिर घर यहाँ से दूर ही कितना है! जब चाहे आओ जाओ….शाम को ऑफिस से आते हुए बच्चे रोज मिलने आते हैं ।” हैरानी की कोई सीमा न थी…. आज मैं ओल्ड एज होम का ये नया और अद्भुत रूप देख रही थी । “आंटी जी क्या मैं भी रोज आ सकती हूँ यहाँ….अपना अकेलापन दूर करने और आप सब की जिन्दगी का हिस्सा बनने!!!” “हाँ हाँ क्यूं नहीं!!!” कई स्वर एक साथ उभरे और मैं भी उनके साथ चिडिया उड़ तोता उड़ खेलने बैठ गई ।
लेखिका : अंजू खरबंदा, दिल्ली