चमोली । पहाड़, पानी और पांडव एक दूसरे के पूरक है। इनके बिना पहाड़ के लोक की परिकल्पना नहीं की जा सकती है। इन दिनों पहाडों के गांवों में पांडव नृत्य का मंचन किया जा रहा है। पांडव नृत्य देवभूमि की अनमोल सांस्कृतिक विरासत है। आजकल सीमांत जनपद चमोली के बंड पट्टी के दिगोली और पैनखंडा के पाखी गांव में पांडव नृत्य का आयोजन किया जा रहा है। गांवों में पहाड़ की लोकसंस्कृति परिलक्षित हो रही है। दिगोली गांव में पांडव नृत्य के आयोजन में 90 साल की रुक्मणी पुरोहित की पांडवाणी ने हर किसी को मंत्रमुग्ध कर दिया है। 90 साल की उम्र के इस पड़ाव में भी पांडवाणी दादी की जादुई और खनकती आवाज लोगों को हतप्रभ कर रही है। हर कोई पांडवाणी दादी की भूरी भूरी प्रशंसा कर रहा है।
जाने पांडवाणी दादी और पांडवाणी विधा
चमोली जनपद के दशोली ब्लाॅक की बंड पट्टी के दिगोली गांव की 90 वर्षीय रुक्मणी देवी विगत 80 सालों से पांडवाणी लोक गायन शैली के जरिये पांडवों की गाथा का वर्णन बंड क्षेत्र के विभिन्न गांवों में आयोजित पांडव नृत्य में करती आ रही हैं जिस कारण से बंड क्षेत्र ही नहीं बल्कि पूरे दशोली और जोशीमठ ब्लाॅक में लोग उन्हें पांडवाणी दादी के नाम से जानते हैं। पांडवाणी मुख्यतः पांडव नृत्य आयोजन के अवसर पर पांडवों की गाथा का लोक गायन शैली के जरिये वर्णन की विधा है। उत्तराखंड में पांडवाणी लोक गायन में पुरुषों का ही वर्चस्व रहा है। महिलाओं की ओर पांडवाणी लोक गायन के उदाहरण बेहद कम देखने को मिलते हैं। पांडवाणी दादी के पुत्र हरीश पुरोहित कहते हैं कि उनकी मां उन्हें बचपन से ही पांडवाणी सुनाती आ रही है। उन्हें पांडवों की पूरी गाथा पांडवाणी के रूप में आज भी कंठस्थ याद है। मेरी मां ने मेरे नाना से पांडवाणी को आत्मसात किया है। हम सौभाग्यशाली हैं कि हमें अपनी मां से इस अनमोल विरासत को सुनने का मौका मिला है। मेरी मां शायद चमोली जिले की एकमात्र पांडवाणी लोक गायन शैली की गायिका हैं जो दशको से इस विधा को संजोये हुए हैं। बंड पट्टी के सामाजिक सरोकारों से जुड़े और बंड विकास संगठन के पूर्व अध्यक्ष अतुल शाह का कहना है कि आज युवा पीढ़ी पांडवाणी विधा से शायद ही भली भांति परिचित हो लेकिन पांडवाणी दादी जिस तरह से सालों से इस विधा को संजोये हुए हैं वह अनुकरणीय और प्रेरणादायक हैं।
विरासत में मिली थी पांडवाणी गायन की दीक्षा
पांडवाणी दादी रुक्मणी पुरोहित को पांडवाणी गायन की दीक्षा अपने पिताजी कुलानंद तिवारी, देवलधार (मंडल घाटी) से विरासत में मिली। वे बचपन से अपने पिताजी से महाभारत को सुना करती थी। उनके पिताजी को रामायण, महाभारत से लेकर पुराण और अन्य धार्मिक ग्रन्थ कठंस्थ याद थे और वे हर रोज इनका वाचन किया करते थे। पांडवाणी दादी ने अपने पिताजी से पांडवों की गाथा को पांडवाणी के जरिये आत्मसात किया। दादी कहतीं हैं कि वे जब महज 10 साल की थी तो तभी से ही उन्होंने पांडवाणी गायन शुरू कर दिया था और आज 90 साल की उम्र में भी वे पांडवाणी गा रहीं हैं। वे कहती है कि हमारी पहचान हमारी लोकसंस्कृति और लोक परंपरायें हैं। हमारी जिम्मेदारी है कि हम अपनी समृद्धशाली सांस्कृतिक विरासत को संजोकर रखें और आनें वाली पीढियों तक इसे पहुंचाये।
जाने क्या हैं पांडव नृत्य
उत्तराखंड के रूद्रप्रयाग और चमोली जनपद की मंदाकिनी और अलकनंदा घाटी के सैकड़ों गांवों में हर साल नवम्बर से फरवरी माह तक पौराणिक पांडव नृत्य का आयोजन किया जाता है। पांडव नृत्य का आयोजन पांडवो की याद में और घर गांवों में खुशहाली के लिए किया जाता है। इस आयोजन में पांडवो के जन्म से लेकर स्वर्गारोहणी के रास्ते स्वर्ग जानें के विभिन्न अंशों का ढोल की तालों और थापों पर मंचन किया जाता है। इस दौरान मोरी डाली, देवदार डाली, केला पेड, कीचक वध, पंया, नारायण भगवान की शादी, राजा पांडु के श्राद्ध के लिए गेंडे की खगोती लाना (गेंडा वध), और पांडु राजा के श्राद्ध का मंचन किया जाता है। जिसके बाद अंतिम दिन सामूहिक भोज दिया जाता है और पांडवो के अस्त्रों को बाण कंडी में रख दिए जाते हैं। इस तरह से लगभग 10-12 दिनों का ये आयोजन सम्पन हो जाता है।