नैनीताल (हिमांशु जोशी): सन् 1857 की क्रांति तो सबको याद होगी पर गुलाम भारत में सन् 1856 में भी एक क्रांति हुई थी जिसे भारत का समाज शायद याद नही रखना चाहता। श्री ईश्वरचन्द्र विद्यागर के प्रयत्नों से पास हुए सन् 1856 के हिन्दू विधवा पुनर्विवाह अधिनियम से विधवा विवाह को वैध घोषित कर दिया गया था पर दुख की बात यह है कि इस विषय में पूरे भारतवर्ष में ना तब बात की गई थी ना अब की जाती है।
कहा जाता है कि हम भारतीय अपनी संस्कृति, धर्म का पालन सदियों से करते आ रहे हैं और यह विरासत अपनी आने वाली पीढ़ियों को भी देते आये हैं। होली, दिवाली, ईद, क्रिसमस सभी त्योहार हम सब साथ मिलकर मनाते आये हैं शायद इसलिए एक क़ानून बनने के बाद भी हम अब तक उस मानसिकता से बाहर नही आ पाये हैं जिसमें एक विधवा विवाह को सम्मानित नज़रों से देखा जाता है।
सामाजिक नियमों के बन्धन में रहकर आचरण करने से किसी भी समाज में एक अनुशासन बना रहता है। हर देश की अलग-अलग संस्कृति व सामाजिक नियम क़ानून होते हैं और वहाँ के नागरिक उन्हीं के अनुसार अपना जीवन जीते हैं। भारत की संस्कृति में बचपन से माता-पिता के साथ रहकर शिक्षा ग्रहण करना, विवाह करना व प्रौढ़ अवस्था में अपने बुज़ुर्ग माता पिता की सेवा करने की परम्परा है।
विवाह के बाद यदि पत्नी की मृत्यु हो जाये और दम्पति की संतान हैं तो पति को बच्चों की देखभाल के लिये समाज विवाह की अनुमति दे देता है। पुरुषों के लिये यह भी कहा जाता है कि यह अकेले कैसे जीवन यापन करेगा। नवविवाहित जोड़ा हो और पति की मृत्यु हो जाये तो महिला को तरह-तरह की बातें कही जाती हैं उस पर अशुभ होने का ठप्पा लगा दिया जाता है और उससे शादी के लिये कोई तैयार नही होता है। यदि किसी विधवा युवती की संतान होती है तो उसका विवाह होना और मुश्किल हो जाता है।
एक ओर जहाँ समाज में व्याप्त अन्य कुरीतियां समाप्त हो रही हैं जैसे दहेज प्रथा, बाल विवाह अब पहले की तुलना कम हो गये हैं वही आश्चर्य की बात यह है कि विधवा विवाह की समस्या वैसी ही बनी हुई है। आज महिलाएं पुरुषों के साथ कंधे से कंधा मिला कर चल रही हैं। बड़ी बड़ी कम्पनियों के प्रबंधन की बात हो या राजनीति में भागीदारी महिलाओं के योगदान को कम करके नही आंका जा सकता है। महिलाएं अब पहले से अधिक आत्मनिर्भर हो गयी हैं और विधवा पुनर्विवाह समाज में स्वीकार किया जाये उसका यही सबसे उपयुक्त समय है।
युवा वर्ग किसी भी क्रांति को लाने में सक्षम है फिर वह चाहे सामाजिक हो या राजनीतिक। अपने युवा पुत्र का विवाह एक विधवा से कराने का उदाहरण देने के बाद ही श्री ईश्वरचन्द्र विद्यागर भी विधवा पुनर्विवाह पर समाज में अपनी बात मजबूती से रख पाए।
भारत में महिलाओं को देवी का दर्जा दिया गया है, एकल परिवार में जीवनसाथी अगर साथ दे तो पति-पत्नी दोनों कमा कर अपने परिवार की अर्थिक स्थिति मजबूत कर सकते हैं और अब एकल परिवारों का ही अधिक चलन है। विधवा महिला यदि समझदार, शिक्षित है तो यह कहीं नही लिखा है कि वह अच्छी जीवनसंगिनी नही बन सकती। यदि हम ऐसी विधवा महिला की बात करें जिसकी कोई संतान है तो परिवार नियोजन के इस जमाने में वह महिला विवाह के लिये सबसे उपयुक्त है।
यदि हम सिर्फ विधवा शब्द की मानसिक बाधा को दूर कर दें तब शायद किसी 20 वर्ष की बेवा को अपना बाकी बचा जीवन अकेले समाज की तिरस्कृत नज़रों के बीच ना बिताना पड़े।
लेखक हिमांशु जोशी पत्रकारिता के शोध छात्र हैं।
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