नैनीताल (हिमांशु जोशी): कोरोना से सब कुछ थम सा गया है। ना सड़कों पर वाहनों का शोर न फैक्ट्रियों का धुंआ ना ट्रेन का हॉर्न ना हवाई जहाजों की उड़ान और ना ही पानी के जहाज़ों का सफर। आर्थिक, सामाजिक सभी प्रकार की गतिविधियों पर विराम लग गया है। मनुष्य खुद से ही डरने लगा है और मानव जाति को अपने अस्तित्व पर खतरा मंडराता दिख रहा है।
मानव गतिविधियों से बुरी तरह प्रभावित प्रकृति आज खुद को स्वयं ठीक कर रही है। आसमान साफ है, नदियाँ साफ है, हवा साफ है। कोरोना ने रोज़गार के कई अवसरों को समाप्त कर दिया है तो कई अवसर पैदा भी किये है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जी ने भी भारत निर्मित को बढ़ावा देने के बात कही है। दिल्ली , मुम्बई जैसे बड़े शहरों से वापस आ रहे मजदूरों से सड़क मार्ग भरे पड़े हैं। औरंगाबाद ट्रेन हादसे ने हम सब का ध्यान मजदूरों की व्यथा की ओर खींचा है। गांव छोड़कर शहरों में बसे लोगों को आज अपने ही लोग अप्रवासी के तौर पर जान रहे हैं और उनके घर आने पर कोई खुश नही है, संक्रमण का डर हर किसी के मस्तिष्क में है।
जो गाँव पिछले कई वर्षों से खाली हो रहे थे। इस समस्या के समाधान पर बात तो हुई पर कभी सरकार या स्वयं समाज द्वारा कोई ठोस कदम नही उठाया गया। आज शहर में रहकर तीन महीने भी अपने और अपने परिवार का पेट पालने की हिम्मत ना जुटा पाने वाले कामगारों की इस दशा का समाधान निकालना आवश्यक है।
कोरोना हमारे समाज की व्यवस्था को लेकर गम्भीर प्रश्न खड़े कर रहा है कि क्यों अपना गांव छोड़कर शहर बस गयी गरीब जनता आज़ाद भारत की इस पहली गम्भीर परीक्षा में असफल हो गयी। क्यों कोई सरकार आज तक गरीब तबके के लिये रोटी, कपड़ा और मकान की स्थायी व्यवस्था नही कर पायी।
तूफान के बाद शांति जरूर आएगी पर प्रश्न यह है कि इसके बाद हम इस महामारी से उपजे हालातों से क्या सीख लेंगे। घर वापस आये प्रवासियों के गांवों, कस्बों में ही रोज़गार के क्या साधन उपलब्ध कराए जाएंगे या उन्हें फिर से शहरों की ओर जाना होगा और ऐसी ही किसी अनहोनी का इंतज़ार करना होगा।
“हिमांशु जोशी, लेखक पत्रकारिता के शोध छात्र है.”
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