- मनोज श्रीवास्तव
देहरादून : परिवर्तन का मूल आधार है अपने को हर सेकण्ड बिजी रखना। महारथी वह है जिसके अंदर सदा या संकल्प रहे कि जो भी समय है वह हमारे बिजनेस की सेवा के अर्थ ही देना है। चाहे अपने शरीर के लिये आवश्यक कार्य में भी समय लगाते हो तो भी स्वयं के प्रति लगाते हुये बिजनेस की सेवा साथ-साथ करता है। यदि वाचा और क्रमणा में नही कर सकते है तो मंसा या भावना का संकल्प आवश्य यह रहे कि हम अपने सब्जेट में बिजी रहे। महादानी उसे कहा जाता है जो स्वयं के प्रति ही नहीं बल्कि हर वस्तु हर समय अन्य को दान करने में लगाए, उसे महादानी कहते है। ऐसे ही स्वयं के प्रति समय देते हुये सदा यह समझे कि मैं विश्व की सेवा पर हूं। जैसे ही जब स्टेज पर बैठते हैं तो विशेष अटेंशन रहता है कि मैं सेवा के स्टेज पर हूं तो हल्कापन बना रहता है।
इस प्रकार सेवा का फुल अटेंशन बना रहता है। ऐसे ही सदा अपने को सेवा के स्टेज पर समझना चाहिये। इसी के द्वारा हमारा स्वयं परिवर्तन संभव है। जो कुछ स्वयं में कमजोरी महसूस करते हैं वह सब इस सेवा के कार्य में निरंतर बने रहने से सेवा के फलस्वरूप प्राप्त दूसरों के दिल से निकले आशीर्वाद की प्राप्ति हमारी खुशी है। उसके ही आधार पर अपने बिजी रहने के बोझ की कमी को समाप्त कर लें। परिवर्तन होने का यही साधन है कि हम स्वयं परिवर्तन के लिए अटेंशन दें और इसे प्रैक्टिकल में लें। अपना समय सिर्फ स्वयं के प्रति नहीं बल्कि सर्व के कल्याण सेवा के प्रति भी हो। स्वयं की और सर्व की सेवा का बैलेंस हो, उसे ही कहेंगे महारथी।
बच्चों के बचपन का समय स्वयं के प्रति होता है और जिम्मेदार लोगों का समय सेवा के प्रति होता है। घोडे और प्यादे का समय स्वयं के प्रति ज्यादा होता है। स्वयं ही कभी बिगडेंगे, कभी धारण करेंगे, कभी धारणा में फेल होते रहेंगे, कभी तीव्र पुरूषार्थ में होंगे, कभी साधारण पुरूषार्थ में होंगे। कभी किसी संस्कार से युद्व करेंगे तो कभी दूसरे संस्कार से युद्ध करेंगे। अथार्त स्वयं के प्रति ज्यादा समय गवाएंगे, लेकिन महारथी ऐसा नहीं करेंगे। जैसे बच्चे होते है खिलौने से खेलेंगे भी और बिगाडेंगे भी, लेकिन यह सब बचपन की निशानी है महारथी होने की नहीं।
अव्यक्त बाप-दादा, महावाक्य मुरली 22 जनवरी 1976
लेखक : मनोज श्रीवास्तव, सहायक निदेशक सूचना एवं लोकसम्पर्क विभाग उत्तराखंड